जाँबाज़ सेनानी:मेजर सोमनाथ शर्मा(पाक-समर्थित कबाइली हमले के समय श्रीनगर-कश्मीर के हवाई अड्डे के बचाव में 3 नवम्बर 1949 को अपने साहसिक कार्यों के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत परम-वीर-चक्र से सम्मानित किया गया। इस ‘शौर्य-सम्मान’ की स्थापना पहली बार हई थी और यह सम्मान मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी बहादुरी, कर्तव्य-निष्ठा और साहसिक अभियान के लिए प्रदान किया गया था। अगर मेजर सोमनाथ शर्मा और उनकी सैन्य टुकड़ी ने अपनी जान पर खेलकर बडगाम स्थित श्रीनगर की हवाई-पट्टी की रक्षा न की होती तो कश्मीर के हाथ से चले जाने में देर न लगती।)
देश के इतिहास के साथ ही कश्मीर के इतिहास में 1947 का वर्ष बड़ा महत्वपूर्ण है। उपमहाद्वीप में राजनीतिक घटनाएं तेजी से बदल रही थीं।भारत-पाक विभाजन की नींव पड़ चुकी थी। माउंट ब्रिटेन के प्रस्ताव अनुसार दो-एक को छोड़ लगभग सभी राज्यों/रियासतों ने 15 अगस्त, 1947 से पहले या बाद में दोनों में से किसी एक अधिराज्य में विलय होने का निर्णय ले लिया था। जम्मू और कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) के डोगरा शासक महाराजा हरिसिंह भी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे भारत या पाकिस्तान में किस के साथ शामिल होना चाहेंगे? परिणामस्वरूप राज्य में राजनीतिक स्थिति ढुलमुल बनी हुयी थी। राज्य के धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक स्वरूप को देखते हुए महाराज के पास विकल्प सीमित थे। पाकिस्तान के साथ जुड़ना जम्मू की डोगरा-बहुल जनता शायद पसंद न करती और भारत के साथ हाथ मिलाना घाटी में व्याप्त मुस्लिम-बहुल जनता को रास न आता।स्थिति विकट,लचीली और समस्यापूर्ण थी।भारत में शामिल होने के लिए महाराजा को अपनी विरोधी ताकतों से भी समझौता करना पड़ता । इधर, किसी भी एक विकल्प को चुनने में महाराजा को अपने राजनीतक भविष्य के पतन की बात भी नज़र आने लगी थी। अतः वे तीसरे विकल्प यानी ‘स्वतंत्र रहने’ के पक्ष में सोचने लगे। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पाकिस्तान को लगने लगा था कि कश्मीर उनके हाथ से निकलने वाला है।
उधर,भारत-पाक विभाजन के एक पखवाड़े के अंदर-अंदर ही जम्मू के पुंछ और सियालकोट इलाके में पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाओं की घुसपैठ की खबरें आने लगीं थीं। 22 अक्टूबर, 1947 को आधुनिक हथियारों से लैस पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल अकबर खान की कमान में उत्तर पश्चिमी-सीमा प्रांत के कबाइलियों की जमात/झुंड ने सीमा पार की और कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी जिले मुजफ्फराबाद में प्रवेश किया।यह एक तरह से युद्ध की कार्रवाई ही थी। निर्दोष नागरिकों, सरकारी अधिकारियों,मर्द-औरतों आदि को मार दिया गया और गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया।कबाइलियों की यह बर्बर सेना आतंक का तांडव मचाती श्रीनगर शहर की ओर बढ़ने लगी। तभी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए महाराजा हरिसिंह ने आनन-फानन में भारत के साथ शामिल होने के विलयपत्र पर हस्ताक्षर किए।भारत से कबाइलियों को खदेड़ने के लिए सैनिक मदद मांगी और स्वयं कश्मीर की राजनीति से विलग हुए। महाराजा हरीसिंह के अनुरोध पर दुश्मन के हमले का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार द्वारा भारतीय सेना की एक टुकड़ी कश्मीर में तुरंत तैनात करने का निर्णय लिया गया। 31 अक्टूबर को कुमाऊँ रेजिमेंट की डी-कंपनी मेजर शर्मा की अगुआई में श्रीनगर पहुंची। हालांकि मेजर शर्मा के बाएं हाथ में प्लास्टर बंध था जो हॉकी-फील्ड में चोट लगने के कारण बंधा था, लेकिन उन्होंने अपनी कंपनी के साथ दुश्मन का मुकाबला करने को प्राथमिकता दी और उन्हें फ्रन्ट पर जाने की अनुमति दे दी गई।फ्रन्ट पर मेजर सोमनाथ शर्मा ने जो बहादुरी दिखाई और जिस जाँबाज़ी से दुश्मन के दांत खट्टे किए,उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है। उनके बहादुरी के कारनामों का उल्लेख आगे किया जायगा।
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी, 1923 को गाँव दध, जिला कांगड़ा(हिमाचल प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग ऐसी जगहों पर होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल-कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे। उनके परिवार में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चली आ रही थी। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर उनके मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबाद बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।
देहरादून में प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लेने से पहले सोमनाथ शर्मा ने शेरवुड कॉलेज, नैनीताल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और बाद में उन्होंने सैंडहर्स्ट रॉयल मिलिट्री कॉलेज में अध्ययन किया। बचपन में दादाजी द्वारा सुनाई गई भगवद्गीता की शिक्षाओं से वे बहुत प्रभावित थे जिनका उन्होंने अपने सैन्य- जीवन में बखूबी अनुपालन किया।
22 फरवरी 1962 को रॉयल मिलिट्री कॉलेज से स्नातक होने पर, शर्मा को ब्रिटिश भारतीय सेना के 7वीं बटालियन, 19वें हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में भारतीय सेना की चौथी बटालियन, कुमाऊं रेजिमेंट) में कमीशन किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उन्होंने अरकान अभियान के दौरान बर्मा में जापानी सेना के खिलाफ युद्ध में भाग लिया। उस समय उन्होंने कर्नल के०एस० थिमय्या की कमान के तहत काम किया, जो बाद में जनरल के पद तक पहुंचे और सेना-प्रमुख भी बने।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कश्मीर में दुश्मन का सामना करने के लिए मेजर सोमनाथ ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपनी कंपनी के साथ 3 नवंबर १९४७ को श्रीनगर के लिए रवाना हुए। दरअसल, भारत-पाक विभाजन के कुछ दिन बाद ही बडगाम(श्रीनगर) में पाक-समर्थित कबाइली बड़ी तादाद में इकट्ठे हो रहे थे और उनका मकसद बडगाम स्थित एयरफील्ड पर कब्जा करना था ताकि भारतीय सेना श्रीनगर-कश्मीर न पहुंच सके। कश्मीर में घुसपैठ कर रहे इन कबाइलियों को ढूंढने और उनको खदेड़ने के लिए ही कुमाउं रेजिमेंट बटालियन को वहां तैनात किया गया था और कमान मेजर सोमनाथ शर्मा के हाथ में थी। दुर्भाग्य से 3 नवंबर को पेट्रोलिंग के दौरान दोपहर ढाई बजे के आसपास वे दुश्मन से घिर गए। श्रीनगर हवाई हड्डा कबाइलियों के कब्जे में आने वाला था। लेकिन सोमनाथ शर्मा और उनकी सेना की टुकड़ी बहादुरी से लड़ी और दुश्मन को आगे बढ़ने से रोक लिया।
लगभग 400 घुसपैठियों के एक कबाइली लश्कर ने डी-कंपनी को तीन तरफ से घेर रखा था। मेजर शर्मा को अपनी पोजीशन के महत्व का पूरा एहसास था। वे जानते थे कि यदि उनकी कंपनी ने अपना स्थान छोड़/खो दिया तो श्रीनगर का हवाई-अड्डा और श्रीनगर शहर दोनों असुरक्षित हो जायेंगे। भारी गोलीबारी के बीच और सात से एक के अनुपात से उन्होंने अपनी कंपनी को हिम्मत के साथ लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और खुद दुश्मन की भारी गोलीबारी के बीच एक ठौर से दूसरी ठौर पर एकहाथ में बंदूक लेकर इधर से उधर भागते और अपने साथियों का मनोबल बढ़ाते रहे । इस दौरान दुश्मन की सेना लगातार हमला कर रही थी और दुश्मन की सेना भी कई गुना ज्यादा संख्या थी। लेकिन, फिर भी सोमनाथ शर्मा ने वापस हटने का फैसला नहीं किया और दुश्मन की सेना को आगे बढ़ने से रोके रखा। उन्होंने अतिरिक्त सेना की मदद मिलने तक दुश्मन से जंग जारी रखी। करीब 6 घंटे तक उनसे मुकाबला किया। उनका कहना था कि वो दुश्मन से आखिरी गोली और आखिरी सांस तक लड़ेंगे और लगातार लड़ते रहे।
जब हताहतों की संख्या बढ़ने लगी और मेजर सोमनाथ लगने लगा कि उनकी कंपनी/टुकड़ी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, तो मेजर शर्मा ने अपने साथियों को गोला-बारूद बांटने का कार्य स्वयं संभाला और लाइट मशीनगन का संचालन भी किया। इसी बीच एक मोर्टार के हमले से बड़ा विस्फोट हुआ जिसमें मेजर शर्मा बुरी तरह से घायल हो गए। शहीद होने से पहले उन्होंने अपने संदेश में कहा था: ‘दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी पर है। हमारी संख्या काफी कम है। हम भयानक हमले की ज़द में हैं। लेकिन हमने अभी तक एक इंच जमीन नहीं छोड़ी है। हम अपने आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ेंगे’। दुश्मन के साथ लड़ाई के दौरान शर्मा के अलावा एक जूनियर कमीशन अधिकारी और डी-कंपनी के २० अन्य रैंकों के सैनिकों की भी मौत हो गई। मेजर शर्मा के शरीर को तीन दिनों के बाद बरामद किया गया।
जब तक सहायता के लिए दूसरी बटालियन वहां पहुंचती, उससे पहले मेजर सोमनाथ शर्मा और उनकी टुकड़ी के सैनिक शहीद हो चुके थे। लेकिन उन्होंने 200 कबाइलियों को मौत के घाट उतार दिया था और कश्मीर घाटी पर कबाइलियों का अधिकार होने से बचा लिया था। हालांकि, वो खुद भी शहीद हो गए मगर अपना और अपनी रेजिमेन्ट का नाम रोशन कर दिया। इस वीरता और पराक्रम के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
कहा जाता है कि मेजर सोमनाथ शर्मा के शव की पहचान उनकी पिस्तौल और उनके पास मिली गीता की पुस्तक से हुई थी।
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