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१९ जनवरी (कश्मीरी पंडित-विस्थापन-दिवस पर विशेष)

 

१९ जनवरी (कश्मीरी पंडित-विस्थापन-दिवस पर विशेष) Press-note/For publication please 

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन

कश्मीरी पंडितों को अपने मूल स्थान से विस्थापित हुए अब लगभग बत्तीस वर्ष हो चले हैं। यानी लगभग तीन दशक से ऊपर! बच्चे जवान हो गए,जवान बुजुर्ग और बुजुर्गवार या तो हैं या फिर 'त्राहि-त्राहि' करते देवलोक सिधार गए।कैसी दुःखद/त्रासद स्थिति है कि नयी पीढ़ी के किशोरों-युवाओं को यह तक नहीं मालूम कि उनका जन्म कहाँ हुआ था?उनकी मातृभूमि कौन-सी है?बाप-दादाओं से उन्होंने जरूर सुना है कि मूलतः वे कश्मीरी हैं, मगर 1990 में वे बेघर हुए थे। सरकारें आईं और गईं मगर किसी भी सरकार ने उनको वापस घाटी में बसाने की मन से कोशिश नहीं की। की होती तो आज विस्थापित पंडित घाटी में लस-बस रहे होते। सरकारें जांच-आयोग तक गठित नहीं कर पाईं ताकि यह बात सामने आ सके कि इस देशप्रेमी समुदाय पर जो अनाचार हुए,जो नृशंस हत्याएं हुईं या फिर जो जघन्य अपराध किए गए, उनके जिम्मेदार कौन हैं? दर-दर भटकने को मजबूर इस कौम ने अपनी राह खुद बनायी और खुद अपनी मंजिल तय की।लगभग तीन दशकों के निर्वासन ने इस पढ़ी-लिखी कौम को बहुत-कुछ सिखाया है। स्वावलम्बी,मजबूत और व्यवहार-कुशल बनाया है।जो जहां भी है,अपनी मेहनत और मिलनसारिता से उसने अपने लिए एक जगह बनायी है।बस,खेद इस बात का है कि एक ही जगह पर केंद्रित न होकर यह छितराई कौम अपनी सांस्कृतिक-धरोहर शनै:-शनै: खोती जा रही है। समय का एक पड़ाव ऐसा भी आएगा जब विस्थापन की पीड़ा से आक्रान्त/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो देगी। नामों-उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। हर सरकार का ध्यान अपने वोटों पर रहता है। उसी के आधार पर वह प्राथमिकता से कार्ययोजनाओं पर अमल करती है और बड़े-बड़े निर्णय लेती है। पंडित-समुदाय उसका वोट-बैंक नहीं अपितु वोट पैदा करने का असरदार और भावोत्तेजक माध्यम है।अतः तवज्जो देने लायक भी नहीं है

समाज-विज्ञानियों का कहना है कि विस्थापन की त्रासदी ने कश्मीरी पंडितों को बेघर ही नहीं किया, बल्कि उनके सामाजिक ढांचे को भी आहत कर दिया है। अपने रीति-रिवाज भले ही वे न भूले हों, पर अपनी भाषा वे भूल रहे हैं। मुझसे मित्र अक्सर यह पूछते हैं कि कश्मीर से जो पंडित बाहर आ गए हैं, वे अपने घरों में ज्यादातर हिंदी ही क्यों बोलते हैं? अपनी मातृभाषा ‘कश्मीरी’ क्यों नहीं बोलते? जैसे बांग्ला या मराठी या फिर तमिल-भाषी अपने घरों में अपनी-अपनी भाषाएं बोलते हैं। मैं उनको समझाने का प्रयास करता हूं कि भाषा की परंपरा और अस्मिता को सुरक्षित रखने में उस भाषा के बोलने वालों का एक ही जगह पर रहना बहुत जरूरी होता है।सामुदायिकता का भाव भाषा को मजबूती प्रदान करता है और इस तरह से उसका प्रचार-प्रसार अबाधित रहता है। समुदाय के बिखराव/ टूटन से भाषा और साहित्य का नुकसान तो होता ही है, कालांतर में उसके बोलने वालों की संख्या भी घटती चली जाती है। कश्मीर में जो रह रहे हैं, वे तो यह भाषा बोल लेते हैं और जो खदेड़े गए अथवा बिखर गए उनके लिए इस भाषा को जीवित रखने के उपायों से अपने अस्तित्व को जीवित रखना शायद ज्यादा जरूरी है। 

अमन-चैन में ही भाषा-साहित्य पनपता है, अशांति-विस्थापन में उसका अधोमुखी या तार-तार हो जाना स्वाभाविक है।

डा० शिबन कृष्ण रैणा

अलवर

DR.S.K.RAINA(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)          MA(HINDI&ENGLISH)PhDFormer Fellow,IIAS,Rashtrapati Nivas,Shimla
 Ex-Member,Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice (Govt. of India) SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE (GOVT.OF INDIA) 2/537 Aravali Vihar(Alwar) Rajasthan 301001 Contact Nos; +919414216124, 01442360124 and +918209074186 Email: skraina123@gmail.com,
shibenraina.blogspot.com

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