आधुनिक हिंदी आदिवासी साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से एक निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च
1972 को झारखंड के दुमका ज़िले के दुधनी कुरुवा ग्राम में एक ग़रीब आदिवासी परिवार में हुआ। इनकी
माता का नाम कांदनी हाँसदा और पिता का नाम सिरील मुर्मू था। शिक्षा-दीक्षा सामान्य रही। आसानी से
आजीविका पाने के लिए नर्सिंग का कोर्स किया। बाद में इग्नू से राजनीतिशास्त्र में स्रातक की डिग्री प्राप्त की।
दो दशकों से अधिक समय से आदिवासी स्त्रियों के विस्थापन, पलायन, उत्पीड़न, लैंगिक भेदभाव,
मानवाधिकार, संपत्ति का अधिकार आदि विषयों पर व्यक्तिगत, सामूहिक और संस्थागत स्तर पर सक्रिय भी
रही हैं। इसके साथ ही ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी और आदिम जनजाति की महिलाओं के बीच
शिक्षा एवं जागरूकता के प्रसार के लिए विशेष प्रयासरत रही हैं। इस उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष
राजनीति में उतर आने से परहेज़ नहीं किया और अपने गृह पंचायत से मुखिया पद के लिए भी चुनी गईं।
बात की जाए इनके लेखन कार्य की तो इन्होंने अपनी मातृभाषा संताली में कविता-लेखन की
शुरुआत की। और फिर हिंदी भाषा में भी लिखने लगी। इनके कविता संग्रह इस प्रकार हैं- अपने घर की
तलाश में संताली-हिंदी भाषा में (2004), नगाड़े की तरह बजते शब्द' (2005) और 'बेघर सपने' (2014)
इनकी रचनाएं आधुनिक हिंदी साहित्य के नए विमर्शों में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। आदिवासियों के
जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाली इस मुखर आवाज़ निर्मला पुतुल के जीवन पर प्रसिद्ध फिल्म
निर्देशक श्रीप्रकाश ने 'बुरू-गारा' नामक फिल्म बनायी। इस फिल्म को 2008 में राष्ट्रीय पुरस्कार से
सम्मानित भी किया गया है। इस फिल्म को हेलसिंकी, बर्लिन, काठमांडू, दिल्ली, मदुराई, इंदौर, भुवनेश्वर,
और चेन्नई में फिल्म फेस्टिवल समारोहों में प्रदर्शित किया गया है। इन्हें साहित्य की सेवा के लिए अनेक
पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ गया है। जैसे- साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा 'साहित्य सम्मान'
(2001), झारखंड सरकार द्वारा 'राजकीय सम्मान' (2006), भारत आदिवासी सम्मान', मिजोरम सरकार
द्वारा (2006) तथा राष्ट्रीय युवा पुरस्कार', भारतीय भाषा परिषद्, कोलकत्ता द्वारा, (2009)
एक नज़र इनकी कविताओं पर डाली जाए तो उनमें विद्रोही स्वर और अपने समाज की यथार्थपरक
अभिव्यक्ति का चित्रण दिखाई देता है। प्रमुख रूप से आदिवासी स्त्री की अस्मिता, अस्तित्व की तलाश,
पितृसत्तात्मक व्यवस्था और मानसिकता के प्रति विद्रोह, आदिवासी समाज व्यवस्था के गुण-दोष,
तथाकथित सभ्य शहरी समाज पर व्यंग्य, आजादी आदि विषयों प्रकाश डाला गया है। वर्तमान समय में
इनकी कविताओं की प्रासंगिकता बाई हुई है। इसी दिशा में 'क्या तुम जानते हो' कविता भी महत्वपूर्ण और
प्रासंगिक है। इस कविता के माध्यम से निर्मला पुतुल ने पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को कठघरे में
खड़ा करने का काम किया है और उसके समक्ष कड़े सवाल खड़े किए हैं। साथ ही आदिवासी स्त्री के एकांत
और उसकी इच्छों के बारे में चर्चा करने का प्रयास किया है। यह कविता इस बात को रेखांकित करती है कि
समाज में स्त्री का अपना अस्तित्व है और वह स्वतंत्र रूप से अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है। लेकिन
पितृसत्तात्मक समाज को यह स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए हमेशा उसकी आवाज़ को दबाने की साज़िश की है।
उसकी अस्मिता और अस्तित्व को नकारा है। हमेशा उसे पिता, पति और पुत्र पर डिपेंडेंट होने के लिए
विवश किया गया है। सदियों से अपना अस्तित्व और अपनी ज़मीन तलाशती स्त्री के सवाल को निर्मला
पुतुल ने इन पंक्तियों के माध्यम से उठाने का प्रयास किया है-
'घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम?
बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता?'
भारतीय समाज में स्त्री केवल कल्पना में ही स्थापित होने तथा बहिष्कृत होने के लिए विवश है।
हालांकि वर्तमान समय में स्त्री जीवन के तमाम पहलुओं में परिवर्तन दिखाई तो देता है, लेकिन पितृसत्ता का
वर्चस्व उसके अस्तित्व को खंडित करने में लगातार प्रयासरत है। इसीलिए निर्मला पुतुल का व्यवस्था पर
क्रोधित होना और इन पंक्तियों के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करना दिखाई देता है। वह
लिखती हैं-
'क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री?'
निर्मला पुतुल ने न केवल आदिवासी स्त्री के जीवन संघर्ष को देखा-परखा है बल्कि खुद सहा भी है।
वह कहना चाहती है कि व्यवस्था ने स्त्री के संदर्भ में नियम, परंपराएं और जिम्मेदारियों का भार ऐसे डाला
है कि वह केवल रिश्ते बनाए और बचाए रखने में बाध्य है। कभी बेटी के रूप में, पत्नी के रूप में तो कभी मां
के रूप में उस पर लादे गए कर्तव्यों का निर्वाह करती हुई दिखाई देती है। इसीलिए वह समाज से प्रश्न पूछती
है कि-
'सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आपसे लड़ते?'
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि स्त्रियों की भागीदारी और भूमिका घर, परिवार, समाज और देश
को बनाने में महत्वपूर्ण रही है। लेकिन हमेशा से स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक समाज की सोच कुंठित ही रही
है। स्त्री को हीन भावना से देखा गया तथा उसे भोग विलास की वस्तु के रूप में माना गया। कभी उसे
समझने का प्रयास ही नहीं किया गया। इस बात का ज्वलंत उदाहरण निम्न लिखित पंक्तियों में निर्मला पुतुल
ने प्रस्तुत किया है-
'तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास?'
अपने विचारों को विस्तार देते हुए कवयित्री निर्मला पुतुल कहना चाहती है कि पुरुष स्त्री के गर्भ में
वंश बीज तो बो देता है, लेकिन उसकी पीड़ा, वेदना और उसके दुःख को समझने का कभी प्रयास नहीं
करता। अतःपुरुष समाज स्त्री के प्रति संवेदनहीनता का परिचय दिया है और उसकी भावनाओं का सम्मान
भी नहीं करता। समाज का एक बड़ा तबका स्त्री के व्यक्तित्व को खारिज करते हुए उसे मानवतावादी दृष्टि से
देखने में असमर्थ रहा। इस संदर्भ में कविता की ये पंक्तियां प्रासंगिक हैं-
'उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर?
क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?'
इस कविता की अंतिम पंक्तियों में निर्मला पुतुल ने पुरुष प्रधान समाज पर कटाक्ष किया है। स्त्री के
अस्तित्व को रसोई और बिस्तर तक ही समझने वाला पुरुष प्रधान समाज क्या कभी उसके विविध रूपों,
स्वतन्त्रता, अस्मिता, आत्मसम्मान उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आधिकारों से परिचित है? उसे
ऑब्जेक्ट के बजाए स्त्री के रूप में स्वीकार किया है?
“अगर नहीं!
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?”
अतः आदिवासी रचनाकार निर्मला पुतुल की इस कविता में स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना दिखाई
देती है। साथ ही आदिवासी स्त्री की पीड़ा, वेदना शोषण-अत्याचार और संघर्ष को इस कविता में प्रस्तुत
किया है। इसके अलावा पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था पर तीखे सवाल भी खड़े किए हैं। इस कविता की
भाषा सरल और सहज होने के कारण आम जनता को समझने में आसान है। वस्तुत: निर्मला पुतुल की लड़ाई
पुरुष समाज से नहीं है बल्कि उस व्यवस्था और मानसिकता से है जो स्त्रियों का शोषण करता है, उन्हें
गुलामी की जंजीरों में जकड़ना चाहता है तथा उनके तमाम अधिकारों का हनन करना चाहता है। निर्मला
पुतुल अपने लेखन, चिंतन और सामाजिक संघर्षो के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों, असमानता और
अन्याय को दूर करना चाहती है।
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