बड़ी अभागिन हू मै, मुझे न प्यार करो तुम ,
मैं जिसके भी साथ रही हुआ वह पत्थर जैसा,
जिसे देखन लगी , वही श्री हीन हो गया ,
जिसको भी मैंने चाहा, उसके बुरे दिवस आ पहुचे !
इसीलिए तुमको समझाती हु मै ,
अपने कदमो को तुम अन्यत्र धरो तुम ,
बड़ी अभागिन हू मै, मुझे न प्यार करो तुम !
सदा विधाता मेरा मेरे विपरीत रहा है ,
मेरी हर अभिलाषा अधूरी रही हमेशा ,
मिले मुझे है हर पथ पर काटे ही काटे,
मेरी जीवन – नौका उलटी बही हमेशा ,
मेरे भगुर उपवन मे आकर ,
नही चाहती ,विवश कुसुम के सदरश झरो तुम,
बड़ी आभागिन हू मै मुझे न प्यार करो तुम !
मै वह फूल कि जिसमे नही सुगंध तनिक भी ,
मै ऐसी कविता , जिसमे गतिभग अनेको,
मै वह उपन्यास जिसमे पीड़ा ही पीड़ा ,
वह नाटक रसहींन कि जिसमे रंग अनेको !
इस नीरस अवयसिथत जीवन से ,
तुम्हे सचेत कर रही हू मै ,
बड़ी अभागिन हू मै मुझे न प्यार करो तुम !
जीवन के रस का मुझ मे भी आकर्षण है ,
चाहत की भी मुझको इच्छा है ,
देख स्वयं पर अर्पित होता तुमको ,
मेरे मन मे भी फुलझड़ी सी झरने लगती ,
बड़ी अभागिन हू मै , मुझे न प्यार करो तुम !
डॉ श्रुति मिश्रा
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