आज रात ठहर जाओ यहीं, सहर1 होने तक
कल जाने कहाँ रहूँ, तुमको खबर होने तक
रहने दे अपने नाम, मेरे नाम के पते से
दिले-बेताब के हर तार को, विस्तर होने तक
उड़ती फ़िरेगी खाक मेरी, कू-ए-यार2 में ,इतना
न तूल दे अपने नाम को, मुख्तसर होने तक
तुम्हारे पास बीमारे-मुहब्बत के लिए दुआ नहीं
मैं दुआ करता हूँ, दुआ का असर होने तक
उस बीमारे मुहब्बत की क्या,जो शीशे पर रखकर
चाटते हैं अपना लब, जख्मे जिगर होने तक
1. सुबह 2. यार की गली
डा० श्रीमती तारा सिंह
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