Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आज वही विष छलक रहा है बनकर मदिरा

 

आज वही विष छलक रहा है बनकर मदिरा

पौस पूर्णिमा की पूर्ण चन्द्रिका में, देखा जब मैंने
खिड़की के बाहर क्षण भर को भ्रम में पड़ गया
निखिल धरातल पर है चाँदी मढी हुई, या जल में
प्रतिबिंबित होकर, वसुंधरा लग रही है उज्ज्वल
अंग –अंग था उसका साँचे में ढला हुआ
शरद शुभ्र सी लग रही थी सुंदर, आँखें थीं
मदिरा की प्याली, छलक रही थीं छल - छलकर

मैं भावोद्वेलित हो करने लगा यह चिंता
कि क्या वही हैं ये आँखें, जिन्हें जड़ , खर
चेतनाहीन कहकर प्रतारित करता आया
जिसमें दीखती थीं, अंधकार की गुहा सरीखी
दूर - दूर तक फैला रहता था, अथाह दुख
नैराश्य रोदन , सूनापन और त्रस्तता क्या उन्हीं
आँखों से छलक रही है, आज छल- छल कर मदिरा

दिवा स्वप्न को सुलझाने का मैं कर रहा था कोशिश
तभी मेरा भाव शब्दित होकर, जागृत हो उठा और कहने लगा
आतीत के बहु स्वप्न भावों से अंतर को व्यथित करता आया
तुम भूल गए, मगर मुझे याद है आज भी, तुमने कल्पना
की नीली लहरों में, सुख को द्युतिमान देखकर अग्यान
भविष्य की चिंता में, पिलाया था जो विष का प्याला
आज वही विष छलक रहा है, आँखों से बनकर मदिरा



जो तुमको अपने जीवन का ईश्वर मानकर
जीवन भर करती रही मौन प्रार्थना और पूजा
उसे शूल शय्या के सिवा तुमने और दिया ही क्या
जिन अस्थियों को नरक तोड़ती, तुमने तोड़ा
मांस मज्जाओं को अपने क्रोधाग्नि में भूना
इसके सिवा तुमने उसके लिए और किया ही क्या


आज भी तुम्हारे निष्ठुर दंश की पीड़ा रातों के अंधेरे में
जीवीत हो उठती, सोने नहीं देती, तरल रक्त की धारा
बन हृदय खून संग मिलकर नस -नस में दौड़ती रहती
मगर तुम्हारी पीड़ाओं से प्रेरणा लेकर उमंग आज भी
प्राणों में भरती उन्माद अदृश्य लोक से उतरकर
धरती पर आती, प्रसारित करती निर्वसन कान्ति हेमाभ

ऐसे भी जीवन के कटु संघर्ष को मनुज भूल नहीं पाता
ज्यों भू का वक्षस्थल कंपित करने, उमड़ - घुमड़कर बादल आता
वैसे ही मनुज के एकांत भीटे पर, बैठकर अतीत हलचल करता
कहता जिसने प्रेम स्नेह सरों में, नीलिमा को जागृत देख
जो अमृत अंक में पला-बढा, वह क्या जानेगा कि काल बोध को मन
विस्तृत करता, रोग शमन कर फिर से अंतर को नव निर्मित करता




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