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Dr. Srimati Tara Singh
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आलस्यवाद

 

आलस्यवाद


आलस्यवाद अर्थात जीवन-पथ की रूकावट, जिसके लिए कोई तय उम्र नहीं होती; यह तो ऐसा रोग है जो मानव मन को प्रगति की सीढ़ियों पर कदम ही नहीं रहने देता| यह इन्सान के व्यक्तित्व को कुचलकर रख देता है, फ़लस्वरूप उसके जीवन का स्वर्णिम समय अर्थहीन बीत जाता है| इन्सान के हाथ-पैर को ऐसे जंजीरों से जकड़ देता है, जिसका दोनों सिरा आपस में एक दूसरे से जुड़ा होता है, जिसे चाहकर भी मनुष्य, खोलकर भी भाग नहीं पाता है|


मनोवैग्यानिकों का मानना है, ‘आलस्य व सुस्ती के विभिन्न कारण हो सकते हैं, जिनमें कुछ शारीरिक बीमारियाँ प्रमुख हैं; जैसे,थाइराइड, रक्ताल्पता, अवसाद और दूसरी व्यक्तिगत समस्याएँ|’ मगर आज के युग में आलस्य का कारण आधुनिकरण भी है| पुराने जमाने में जिस काम को आदमी खुद के हाथों महीनों किया करते थे, आज उसे मशीन मिनटों में करके रख देता है| परिश्रम रहा नहीं, जिसके कारण भी लोग आलसी हो रहे हैं, जो स्वस्थ जीवन को ही नहीं, बल्कि लोक-परलोक के लाभों से भी उन्हें दूर रखता है|


आलस्यवाद के प्रवर्तक कवि मालुकादास ने तो आलस्यवाद पर एक नारा भी दिया है…


‘अजगर करे न चाकरी, पक्षी करे न काम|


दास मालुका कह गये, सबके दाता राम||’


अर्थात आलसी, उस अजगर की तरह है, जो अपना पेट भरने के लिए कोई प्रयास नहीं करता, बल्कि वह तो एक जगह कुंडली मारकर, मरे की तरह बैठा रहता है और भूलवश जब कोई शिकार पक्षी या जानवर उसके पास आ जाता है, तब उसे मारकर खा जाता है, अन्यथा महीनों भूखे पड़ा रहता है|


लेकिन जो व्यक्ति अपने और ब्रह्मांड के बारे में सही दृष्टिकोण रखता है, वह यह जानता है कि यह जीवन बहुत अल्प समय के लिए मिला है, और हमें इसी अल्पावधि में सब कुछ करना है; जिससे यह जीवन स्वर्णमय हो सकता है, क्योंकि कार्य ही भविष्य का निर्माण करता है| लेकिन जो जानकर भी अनजान बने जीते हैं, उनकी जिंदगी यूँ बीत जाती है…


‘रात बितायी सोय के, दिवस गंवायी खाय|


हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाय||’


ऐसा माना जाता है, कि आलसी, निद्रादेवी का सबसे बड़ा भक्त होता है| यूँ तो डॉक्टरों का मानना है कि गाढ़ी नींद स्वस्थता का लक्षण है, लेकिन जो आलसी दिन-रात निद्रा की उपासना में लगा रहता है, वह कभी स्वस्थ जीवन नहीं बिता सकता|


आलस्यवाद के विरोधी, इन्हें कामचोर और निकम्मे भी कहते हैं, लेकिन शुक्र है भगवान का कि आलसी इसका विरोध नहीं करते| करें भी तो कैसे, इसके लिए मुँह जो खोलना होगा, जिसके लिए वे कभी तैयार नहीं होते| ये आलसी अपने जीवन के नियम में पूरी तरह विश्वास रखते हैं| उनका सोचना है, ‘सुनो सब की, मगर करो मन की|’ हर इन्सान को इस बात का ख्या्ल रखना चाहिये कि सीमा से अधिक आंतरिक इच्छा न रहे, क्योंकि इच्छाओं के टुकड़ों में बँट जाने से इरादे कमजोर हो जाते हैं| सुस्ती से मुक्ति पाने के लिए इरादों का मजबूत होना सबसे जरूरी है| देखा गया है कि मजबूत इरादे वाले इन्सान के पास आलस्य नहीं रहता है| एक आदमी को गर्त तक ले जाने में आलस्य का सबसे बड़ा हाथ होता है| इससे बचने के लिए, हमें चींटी से, ’ना कहना’ सीखना चाहिये, जो अपने कार्य को पूरा करने में जब व्य्स्त रहती है, तब वह किसी भटकाव में नहीं पड़ती; जब कि हम इन्सान अधिकतर इन भटकावों में भटकते रहते हैं| यह भटकाव तभी खत्म होगी, जब हममें संतुष्टि आयगी| आलसी आदमी विद्या, धन और यश, तीनों से खाली रहता है; वह सुख पाकर भी उसे भोग नहीं सकता है|


आलस्य इन्सान का सब से बड़ा शत्रु है, जो उन्हें कभी सुखी नहीं रहने देता| यह आलस्य ही है, कि हम बिस्तर पर से सुबह के पाँच बजे न उठकर, दिन के आठ बजे, कोई-कोई तो नौ बजे भी उठते हैं| परिणाम-स्वरूप सौ बीमारियाँ हमारे शरीर के अंदर घर बना लेती हैं| आलसी किसी काम को करने में जल्दी नहीं करता, क्योंकि वह इस कथन का पूरी तरह पालन करता है, ’जल्दी काम शैतान का|’ यही सोचकर कुछ आलस्यवादी छात्र अपनी परीक्षा एक बार में नहीं, दो-तीन बार में पास करते हैं| उनका कहना है कि किसी काम में उतावलापन ठीक नहीं होता, धीरे-धीरे करो, तब काम ठीक होगा; अर्थात ‘ देर से करो, मगर दुरुस्त करो|’ हर्ष का विषय है कि आलस्यवाद किसी एक जाति या धर्म का नहीं है, बल्कि यह व्यापक हो गया है| मगर इसी मानव समाज में कुछ ऐसे भी हैं जो कर्मठता की दुहाई देते नहीं अघाते| मगर आलस्यवादी ऐसा नहीं करते, कारण वे जानते हैं, ’एलवर्ट आइन्सटाइन’ जैसे महान वैग्यानिक ने कर्मठता से तंग आकर, कामना किया, ’अगले जनम बढ़ई या चपरासी बनूँ’; तो हम क्यों हाथ-पाँव हिलाएँ कि अंत में ऐसी कामना करनी पड़े|


इनके लिए संत आलसीदास जी की पंक्तियाँ, कितनी युक्तिसंगत हैं, ये तो नहीं मालूम, लेकिन एक आलसी को इससे संबल जरूर मिलता है…


‘आज करे, सो कल कर


कल करे सो परसों|


इतनी जल्दी क्या पड़ी


जीना तो है बरसों||’


आलस्यवाद व्यर्थ की बातों को अपने मस्तिष्क में रहने की जगह नहीं देता, क्योंकि इनका कोई लाभ नहीं होता| अगर होता, तो योगी जनशून्य योग या लय-योग का आविष्कार क्यों करते? बड़े-बड़े महात्मा, योगी, ऋषि मस्तिष्क को विचार-शून्य करने के लिए कठोर साधना, तप तथा एकांतवास पर क्यों जाते? योग में दंडासन तथा शवासन और कुछ नहीं, आलस्यवाद के ही आरम्भिक अभ्यास हैं| इस दृष्टि से आलसी को जन्मजात योगी कह सकते हैं, लेकिन आलस्यवाद को हम दोष न कहकर स्वभाव कहें, तो ज्यादा बेहतर होगा|


 

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