Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आँखों की खिड़की से देखता प्राण विहग

 

              आँखों की खिड़की से देखता प्राण विहग


नील निशा के अंचल में ,तारों का दीप जलाकर 

मृदु करतल पर अपना शशिमुख धरकर 

अकथ, अलौकिक भावों का आधार बनाकर 

मृदुहासिनी चाँदनी सुना रही थी एक कहानी 

कह रही थी चाँद से , मानव के उत्तप्त रक्त की लहरों में 

घूमता-फिरता रहता है एक विकल, विभ्रांत विचार 

क्षणिक सुख की चाह में, ह्रदय को कर देता भस्मसात

जीवन सिंधु के ताल में पड़े मुक्ता का रखता नहीं ख्याल 



टूट जाते धैर्य और सहिष्णुता के सभी दरवाजे 

जब बंद हो जातीं भविष्य की सभी राहें 

वेदना का गीत भी गाता, तो लेता गला फाड़ 

उमड़ी सुषमाओं को देखकर दृगों में भर लेता नीर 

कहता, सहसा निकल पड़ी ह्रदय से, कोई पुरानी पीर 

नहीं देख सकता जगत में, अपना झुका हुआ भाल 

ग्रंथि के सभी बंध ढीले पड़ जाते मगर, फिर भी

नाचने के लिए व्याकुल रहती ह्रदय की चाह 


उर-उर में बिठाकर, ह्रदय विहग को सुनाता 

मृदु-मृदु भावों से अपना स्वप्निल गान 

सुन-सुनकर बेली सा फ़ैल जाता गात 

खिल-खिल जाता ह्रदय कमल, बहने लगती मधु धार 

दैहिक जगत को छोड़कर कहीं और पहुँच जाता,तब

ह्रदय सरोवर में करने लगता रजत रति-विहार 


हल्की सी वनतुलसी की गंध लेकर आती जो पुरवैया 

अचंभित होकर मनुज देखता आसमां की ओर 

सोचता अनल, विशिख, तूणीर भरे नभ में 

भला कैसे रह सकता है, तुलसी का बागीचा ज़िंदा 

तो फिर कहाँ से आ रही है, वाणी विहीन शत-शत 

लक्ष्य लिये, नवजीवन की यह स्वर्णिम आहट

जिसे सुनकर त्वचा की नींद टूट जाती 

रोमों में जलने लगते हैं शत-शत दीपक 


आँखों की खिड़की से उड़-उड़कर देखता प्राण विहग

सोचता जब तक ढह नहीं जाता, यह नील आकाश 

तब तक प्रशस्त नहीं हो सकती. मनु पुत्र की स्वर्णिम राह 

क्योंकि इसकी नीरवता में के गुह्य गर्भ में भरा हुआ है सिर्फ

रोदन, उत्पीडन, ज्योति रहित विश्वास अंधकार

और जीवन के नग्न उल्लासों का त्योहार  



Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ