आँखों से बरसी, गरज-गरजकर
मृग मरीचिका के पथ पर
अपने प्राण - दीप आलोक में
मैं जब भी मिली तुमसे प्रियवर
जीवन का शत बंधन
बदली बन साँसों में घिर आई
आँखों से बरसी , गरज-गरजकर
फ़िर भी न भींगा मेरे जीवन का सकल अणु
मरु धरणी सम , सब सोख गया
उर - सागर बीच , जलता रहा, प्राण -तनु
रातों में नभ से ढुल गिरते देखती हूँ
जब मंथर जल के बिंदु को
लगता गगन से झड़ रहा तुम्हारा यौवन मधु
कभी तुम मलयनील बनकर मुझको
अपने आकुल बाँहों के घेरे में घेरे रखते
कभी राग – मोह से दूर, व्योम का वातायण
खोले , मेघों के छायापट में चिंतारहित सोये रहते
जिसे देखकर,मेरा दिल पिघल-पिघलकर उमड़ आता
बह नहीं सकता, रह जाता आँसू बन-बनकर
कभी प्रणय सुख से आहत
मेरे तप्त बेचैन उमंगों को
छायानट, किरणों से खींचकर
तुम्हारी सुंदर छवि दिखलाता
कभी निर्मोह के काले पट पर
रेखाओं में उलझी रंगहीन
तुम्हारी मुख आकृति दिखलाता
कभी सूखी पंखुड़ियों को दिखलाकर
मुझे रुलाता, मुझसे कहता, देखो
मानव जीवन वेदी पर, परिणय हो
केवल मिलन का मिलन संग
ऐसा कभी नहीं होता
फ़िर क्यों तुम, री तपि ! आँसू की
अँजलि, आँखों में पीती भर-भरकर
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