Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आश्रिता

 

आश्रिता

पति  कीलम्बीबीमारीमेंअपनासबकुछगँवा चुकी , रज्जो के पासअब गँवाने के लिए कुछ नहींथाऔर जोथा, वह उसे    गँवाने के लिए तैयार  नहीं  थी ।  उसकाकहनाथा, स्त्री  कीआबरू , उसका गहना  होता  है , जिसे  बेचानहींजाता, बल्कि  संभालकररखाजाता है ; लेकिन यह सोचकर वह चिंतित हो उठी, ’’ कि  इसपहाड़ सी जिंदगी बसरकरनेके लिए पैसेतोचाहियेथा ,  वे कहाँ सेआयेंगे ; उस  परचारसाल कीबेटी सालवा, उसकीपढ़ाई-लिखाई  कैसेहोगी , धन  तोहैनहीं कि कोईरोजगारकरलूँ, व्यवहारिक बुद्धि भीनहींजोबिना धन के भीअपनेजीने कीराहनिकाललूँ । किसी से  ऋण भीलेने की हिम्मतनहीं पड़ती ,चुकाऊँगी कैसे  ?  किसी के घर जूठे बर्तनमाँजने काभी कामनहीं कर सकती, कुल-मर्यादा  का जोसवालहै ” ।

वहकिसीतरहदो-चार   महीने काटी । जब देखी, पैसे बगैरजिंदगीनहींजीयीजा सकती, तब  वह विधाता के इसपरिहाससे छुटकारापानेके लिएअपनीबेटीसलवाकाहाथ पकड़ीऔर घर से निकलगई । मगर इतनी बड़ी  दुनिया में कोई ऐसा रिश्तेदार भी तोनहीं था, जो  माँ-बेटी , दोनोंका भार उठाने के लिए तैयार हो । इसी चिंता  मेंरज्जोदबी जा रही थी, लेकिन   इस भार कोहल्काकरने का कोई  साधननहीं दीख रहाथा । वह  सोचने  लगी, ”कहीं  अपनाघरत्याग कर मैंनेसागर बीचनौके का त्याग   तोनहींकर दिया । अब जिंदगी अथाहजल मेंडूबी जारहीऔरजहाँमैंखड़ी हूँ , वहाँ  निविड़ सघन अंधकारबढ़ताजारहा  है । ऐसे में   कहाँ जाऊँ ?”  

इधर सालवा केजीवनमें, पिता   की मृत्यु के बादअद्भुत परिवर्तन दीखनेलगाथा , जिसे   देखकररज्जोकीचिंता औरबढ़ने लगीथी । रज्जोदरिद्र थी, मगर  उसकेमुँह परइतनातेजथा, जैसे प्राचीन देव-कथाओंकी वहकोई पात्री हो । संध्या ,रातमेंढ़लनेलगी। उसने देखा किउसकेचारो ओर के वृक्ष की छाया सेएककाला-कलूटा  आदमीअजगरकीतरह, उसकी तरफ़बढ़ताचलाआ रहा है । वह चिल्ला उठी, बोली---- तुम  जोभीहो, वहीं  खड़ेरहो । खबरदार ! जोऔरएककदम भी आगे  बढ़ा । उसकी  चिल्लाहटसुनकर ,उधर  सेगुजर रहा, बगल   केगाँव कामुखिया,  भीमाउसकेपासआया , पूछा---- तुम  कौन होनारी, कहाँ   जाना है ?   क्यातुमलोगोंकोकोईकष्टहै  ?

नहींकहतीहुई, रज्जो नेजब अपनेसिरसेआँचल हटाई, युवक ( मुखिया )  आश्चर्यचकित होगया, उसकी    साँसभारीहोगई । उसका   पूरा शरीरझनझनागया।

युवकनेअपने कंठ   में   कोमलता    लाते  हुए  कहा----- रात   होनेवाली है,   वहभीअमावस्या  की;  ऐसे में   तुम्हाराअकेले कहीं जाना   ठीक नहीं , तुम चाहोतो आजकीरात मेरेघरगुजारसकतीहो , ऐसे तुम्हारी    मर्जी ।

रज्जोसोचने लगी,’ आगे खाई है तो पीछे कुआँ  , ऐसे में पीछे न लौटकर ,आगे चलते रहना ही ठीक होगा । वह उस युवक के साथ उसके घर चली आई और वहीं एक कमरे में ,एक चटाई बिछाकर दोनों माँ-बेटी रात बिताने लेट गई । कल की चिंता में , उसकी आँखों में नींद कहाँ थी, जो सो जाती । वह तो घुली जा रही थी कि सुबह यहाँ से कहाँ जाऊँगी ?’ 

उधर दूसरे कमरे में लेटा मुखिया की आँखों की भी नींद , वृक्ष पर की चिड़ियों की तरह फ़ुर्र हो चुकी थी । वह सोचकर अधीर हो रहा था ,कि यद्यपि युवती का रंग कंचन समान नहीं है, लेकिन उसका साँचे में ढ़ला गठीला बदन , किसी परी से भी कम नहीं है । तो क्या यह सौन्दर्य उपासना की वस्तु है, उपभोग की नहीं ? उसकी सोच धीरे-धीरे विलास-मंदिर में परिणत होने लगी और मन यौवनोन्माद के रस को पीने के लिए तड़प उठा । वह अपने पाप के वेग से उठा और शीर्ण कलेवर पवन से हिलते-डुलते रज्जो के कमरे में आ खड़ा हो गया । वहाँ पहुँचकर देखा----- रज्जो की आँखें खुली हैं, वह जाग रही है ।

रज्जो, बेसमय अपने कमरे में मुखिया का आना देखकर , भयभीत हो खड़ी हो गई और हाथ जोड़कर बोली------ मैं निरुद्देश्य भटक रही थी, आपने मुझे सहारा दिया है । आपका एहसान मरकर भी नहीं भूलूँगी, आप आदमी नहीं, भगवान हैं , और भगवान का काम होता है ,न्याय करना । आप मुझ दरिद्र के साथ न्याय नहीं कर सकते, तो दया कीजिये, और यहाँ से चले जाइये । सुबह होते मैं यहाँ से चली जाऊँगी ।

मुखिया ,ठिठककर पूछा---- कहाँ जावोगी ?

रज्जो रोती हुई बोली---- जहाँ भाग्य ले जायगा ।

यह कहकर रज्जो,सलवा को सहलाने लगी । उसका स्वर विकृत और बदन नीरस हो चुका था ।

सहसा मुखिया ने रज्जो का हाथ पकड़ लिया, जिससे वह त्रस्त होकर बोली---’अपराधी, ’नीच’ यह क्या है ?

मुखिया निर्लज्जता की हँसी हँसते हुए कहा---- बेशक मैं अपराधी हूँ, सुंदरी ; लेकिन यह अपराध मुझसे कौन करवा रहा है ?

रज्जो, घृणा से मुँह फ़ेरती हुई बोली---- कौन करवा रहा है ?

मुखिया----- तुम्हारी सुंदरता । तुम जो इतनी सुंदर न होती, तब मेरा प्यार इतना बदसूरत न होता ।

रज्जो धिक्कारती हुई बोली------ अत्याचारी ! ऊपर वाले से डरो । मैं एक विधवा हूँ, अपने घर आश्रय देने का मूल्य यह कदापि नहीं हो सकता !

मुखिया, रज्जो की बात काटकर कहा----जानती हो हिन्दू विधवा, इस संसार में सबसे तुच्छ निराश्रयी प्राणी होती है । चलो आज तुम्हारे माथे पर लगे कलंक को धो दूँ और आज से तुम विधवा नहीं, बल्कि मुखिया की रखैल के नाम से जानी जावो । मजाल है कि इसके बाद कोई तुम्हारी तरफ़ नजर उठाकर देखे । इसके लिए कुछ नहीं, बस मेरे हृदय के कलनाद में अपना जीवन मिला दो ।

            मुखिया की बात पर रज्जो हँस पड़ी, लेकिन उसकी यह हँसी थी, या उसके हृदय के किसी कोने की मर्मांत पीड़ा की अभिव्यक्ति, मुखिया समझ न सका, वह तो बस इतना समझा,’ मैंने विगत शाम से अभी तक में जो कुछ नहीं पा सका, उसे मिनटों में पा गया और वही रटे हुए वाक्य को दोहराया, कहा------  प्रेम के अभाव में सुख कभी नहीं मिल सकता, चाहे कोई जितना जतन कर ले ।’

रज्जो ,मुखिया की बात का जवाब न देकर ,खिन्न होकर कही---- मैं मरूँ या जीऊँ, धरती पर रहूँ या आसमान में, आपका क्या ? आप क्यों, मुझे लेकर व्यर्थ चिंतित हो रहे हैं ? मैं गरीब हूँ, लेकिन गिरी हुई नहीं हूँ । फ़िर निराश होकर कही ---- यही तो मर्दों के हथकंडे हैं ; पहले तो देवता बन जाओ, जैसे सारी शराफ़त इन्हीं पर खतम है, फ़िर अपना मतलब निकालकर तोते की तरह आँखें फ़ेर लो, जैसे पहचानता ही नहीं ।

मुखिया बड़ी तन्मयता से बोला ---- लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ । मेरा हृदय तो तुम जैसी प्रतिमा का उपासक है । मेरा स्वभाव है कि मैं जब भी किसी हमदर्द की सूरत देखता हूँ, उसकी वेदना को बाँटने दौड़ पड़ता हूँ । यह मेरी दुर्बलता है ,मै जानता हूँ, मगर क्या करूँ ? अपने दिल की लगी ,किसी को सुनाये बगैर भी तो नहीं रह सकता हूँ । तुम जिसे मेरा उन्माद समझती हो, मैं उसे देवी अनुरोध समझता हूँ ।

मुखिया अपनी कथा समाप्त कर, रज्जो की ओर देखा, और उसकी बाँह पकड़कर काँपते स्वर में कहा-----देखो, चटाई पर पड़ी तुम्हारी नसें अकड़ गई हैं ; और तो और ,जीवन में अत्यधिक कष्टों को सहने के कारण तुम्हारा रंग-रूप भी बेसमय नष्ट होने लगा है ।

              मुखिया की बातों को सुनकर रज्जो के बेजान धमनियों में रक्त का तीव्र संचार होने लगा । शीताधिक्य में भी उसे श्वेद आने लगा , उसकी सोई वासना जाग गई । उसका वैरागी सौन्दर्य , शरद के शुभ्र घन के आकाश के चन्द्र सा आप ही आप लज्जित होने लगा । वह चाहकर भी अपनी मानसिक स्थिति को चंचल होने से नहीं रोक सकी और प्रेमायुक्त लज्जा से व्यथित होकर बोली----- जब मैं अपने जीवन की वीरान मरुभूमि में किसी स्नेह की छाया की खोज में भटक रही थी, तब आप आ मिले । मुझे माफ़ कर दीजिये । मैं सांस्कारिक भावना के अतिवाद में पड़कर निराश व्यक्ति की तरह वैरागन बन चुकी थी । यह मेरी भूल थी, जिसे मैं स्वीकारती हूँ ।

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ