Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अब जीने से ऊब चुके हैं प्राण मेरे

 

अब जीने से ऊब चुके हैं प्राण मेरे




अब ऊब चुके हैं जीने से प्राण मेरे

जीने के दिवस बहुत बीते, मिला न 

सृजन का कण भर भी प्यार मुझे

वेदना की निर्मम आघात से  बजते रहे

मेरेहृदयतंत्री के तार, निकलती  रही चिर 

व्यथित आँखों से,आह बन बहते रहे आँसू मेरे


जगत के  झूठे प्रेम  के आँचल का कोना 

पकड़कर भटकती रही व्यर्थ ही जीवन भर

मिला  न  कुसुम कुल का वह भवविलास

जिसका ध्यान लिए जीते रहे प्राण मेरे



काया की छाया, भाग्य  का तीखा व्यंग्य बनकर 

तकदीर का उपहास  उड़ाने  सदा  रही संग मेरे

सिसक -सिसककर रोते-रोते  छिन गईआँखॉं की 

ज्योति, मगर अब  भी अचल हैं प्राण मेरे, तकदीर 

फूट गई,लेकिन फटी न धरती की छाती मेरे लिए



चिर वियोगिनी , भय से अति  कातर होकर

कलपती रही धरा की पत्रहीन डाली पर 

चूमने  का  लालच देकर वसंत आकर चले गए

मगर हुए   कभीडाली के सुखे  पत्ते हरे

बरसती रही आँखें वर्षा ऋतु की तरह 

सूरज धूम लोक में खड़ा होकर निहारता रहा

पश्चिम की ओर निहारता न कभी एक बार मुझे



मैं मर्म  वेदना  के  गीले, दुखद  गान गाती रही

वह ठहरा  न कभी सुनने, रसमय वाणी मेरी

जीवन के उषाकाल  में  ही विनष्ट हो गईं

मेरे जीवन की आशाओं की कलियाँ  सारी

शशि के सुंदर अंचल में एक-एक कर मुरझ गईं

देख लोचन भर आयाआकुल हो उठे प्राण मेरे


मेरे रंक जीवन में कोई सार  नहीं है मगर

निष्ठुर देवता का उपकार ही उपकार है 

देवताओं से मिला उपहार स्वरूप मेरे जीवन को 

गोतीत क्रंदन , दर्द से लबालब मौन उर चिर 

व्यथित मन मिला है, इतने स्फुटित सामग्री 

साथरहकर भी,लहकी न कभी मन की आग मेरे

चर्म के नीचे दहकती रही, निकली न कभी

हृदय ज्वार बनकर तन से मेरे





मेरी देह- लतिका में न चटकी कभी कली कोई

स्वर्नदी  दूर  बहती  रही, मगर कर न सकी  स्पर्श कभी

मेरे जीवन का स्वर लहराता  रहा जमीं अम्बर में, मगर

किसी ने नहीं बताया,क्यों मेरे जीवन के दिवस व्यर्थ गए

मेरे जीवन  का करुण  गान  लिखा  है किन पत्रों पर 

जिसे  पढने मुझे,  इस  मर्त्यलोक में ईश्वर छोड़ दिए

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