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Dr. Srimati Tara Singh
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अच्छा आचार- व्यवहार करना

 

अच्छा आचार- व्यवहार करना


           रामपुर वाले गुप्ताजी को अतिथि सेवा में, बचपन से रूचि रही । अपने माँ-बाप से उन्होंने यही तो सीखा है । घर आये मेहमान ,भगवान होते हैं । उसकी सेवा , यथासाध्य मनुष्य़ को करनी चाहिये । न जाने, ऊपरवाला किस वेष में और कब मिलने आ जाये ;कोई नहीं जानता । ऐसे भी अतिथि का अपमान, ईश्वर का अपमान होता है । तभी गुप्ताजी ने मकान के एक हिस्से को अतिथि सत्कार-गृह का नाम दे रखा है । जितने भी मेहमान ,उनके घर आते हैं, उन्हें वे बड़े प्यार से वहाँ ठहराते हैं । अतिथि के स्वागत में,कोई कमी न रह जाये; जरूरत की हर चीज यथासंभव घर में उपलब्ध रखते हैं । 

              एक दिन उनके बचपन के, एक मित्र आने वाले थे । उनके स्वागत में कोई कमी न रह जाए,उन्होंने अपनी पत्नी मीरा को बुलाकर कहा ,’ मीरा ! कल मेरे बचपन का एक दोस्त आने वाला है । घर में स्वागत के सभी सामान हैं तो ? देखना, किसी प्रकार की कमी न रहे । बाजार से कुछ लाना है तो बोलो ।’

गुप्ताजी की पत्नी बोली,’ नहीं जी ! घर में हर चीज मौजूद है । तुम चिंता मत करो ; तुम्हारे दोस्त के सत्कार में कोई कमी नहीं आयेगी । यह सब मुझ पर छोड़ दो ।’

गुप्ताजी पत्नी से इतना ही तो चाहते थे । खुश होते हुए, एक लम्बी साँस छोड़े और बोले ,’ मैं बड़ा भाग्यशाली पति हूँ। जब से तुम मेरे घर आई हो, मेरी रूचि का सदा ही ख्याल रखी,आगे भी रखोगी,इतना तो भरोसा है ही । फ़िर भी यूँ ही पूछ लिया । पर मीरा ! जानती हो, चंदू आजकल बहुत बातुनी हो गया है, साथ ही उद्दंड भी । वह कहाँ है, उसे जरा बुलाओ । उसको समझाना जरूरी है कि वह मेरे दोस्त के साथ कहीं ऐसा- वैसा व्यवहार न कर दे कि मेरी इज्जत पानी में मिल जाये ।’

गुप्ताजी की पत्नी –’ ठीक है, मैं अभी उसे बुलाती हूँ । चंदू-चंदू , कहाँ है तू ? साहब तुझको बुला रहे हैं ?

उल्टी दिशा से आवाज आती है,’ जी मालकिन, अभी आता हूँ ।’

चंदू (साहब से ) –’क्या बात है साहब ! आपने, मुझे बुलाया ? ’

साहब – हाँ ,चंदू  मुझे, तुमको एक जरूरी बात समझानी है ।;

चंदू – कहिये, साहब !


                     

साहब – कल मेरे बचपन का एक मित्र आने वाला है । उसके स्वागत में कोई कमी मत रखना ; साथ ही अच्छा आचार-व्यवहार करना । जिससे उन्हें ऐसा न लगे, उनके आने से हमलोग खुश नहीं हैं । ठीक है, तू समझ गया ?

चंदू – ठीक है, साहब !

             दिन के ठीक बारह बजे , गुप्ताजी के मित्र आये । दोनो दोस्त गले मिले । ढेर सारी बचपन की यादें ताजी की गईं । कुछ देर बाद , चंदू कहने आया --– खाना तैयार है , साहब ! आपलोग आकर खाना खा लें ।

 दोनो दोस्त आये, खाना खाये । गुप्ताजी के मित्र डकार लेते हुए ( गुप्ताजी से ) – यार ! तुम्हारे घर का खाना बहुत अच्छा बनता है और विशेष रूप से अचार के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं है । अचार की बड़ाई सुनकर, गुप्ताजी की पत्नी से रहा न गया । वो हाथ में अचार का बोतल लेती हुई ,गुप्ताजी के मित्र के पास आकर खड़ी हो गई और बोली ,’ क्या मेरे घर का अचार बहुत पसन्द आया । जानते हैं—इसे किसने बनाया है ?’

गुप्ताजी के मित्र --- नि:संदेह आपने ।

गुप्ताजी की पत्नी – आपका अंदाजा बिल्कुल सही है, इसे मैंने बनाया है । 

फ़िर मुस्कुराती हुई , अचार का बोतल, गुप्ताजी के दोस्त को बढ़ाती हुई --- तो आप इसे अपने साथ घर लेते जाइये ; भाभी, बच्चों के लिए ।

गुप्ताजी के मित्र --- ठीक है भाभी । और अचार का बोतल अपने बैग में रख लिये । रात के दश बजे उनकी ट्रेन थी । सो वे जल्दी-जल्दी तैयार होकर, फ़िर आऊँगा ,कहकर चले गये ।

जैसे ही गुप्ताजी के मित्र आँगन से बाहर निकले, गुप्ताजी चिल्ला उठे,’ चंदू, चंदू ! कहाँ है तू ; यहाँ आ ।

चंदू हाँफ़ता हुआ, धीमी आवाज में – क्या है साहब !

साहब --  तुमने, कौन सा अचार आज , मेरे मित्र के खाने में पड़ोसा ?

चंदू --- अच्छा वाला ।

साहब – क्यों, अतिथि-सत्कार वाला अचार क्या हुआ ?

चंदू --- है न , साहब ?

साहब --- तो फ़िर मेरा वाला अचार, क्यों परोसा ?

चंदू  ( नजरें नीचे करता हुआ ) – साहब ! आपने ही तो कल कहा था---   --- घर आये मेहमान के साथ , अच्छा आचार-व्यवहार करना ; सो मैंने आपवाला अचार परोसा ।

गुप्ताजी ( सर पीटते हुए ) ---मेरे गुरु ! मुझे माफ़ कर दो । गलती तेरी नहीं, मेरी है ।

चंदू ( हिम्मत जुटाते हुए ) ---- ठीक है सरकार ! कोई बात नहीं ।

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