अमृत जान उसे पीती हूँ
दर्शन की लहरें, और मत अधिक उछाल
और सच -सच बता , किसने कहा तुझसे
मेरी जुवां थकती नहीं,अपनी पीड़ा कहने से
मैं मौत से डरती हूँ,काल से घबड़ाती हूँ
मैं खेल नहीं सकत , आग के गोलों से
मैँ नहा नहीं सकती, डूबकर आग की दरिया में
मैं डरती हूँ,निस्सीमता के तिमिर बीच खोने से
जब कि कफ़न थान लेकर सोती हूँ मैं
अमृत जान उसे ,ढाल प्याले में पीती हूँ
दुनिया घबड़ाती है ,जिसे जहर नाम देने से
मैं जीवन रण का शंख ले,तरु गिरि पर
चढ़कर , प्रभंजन का आह्वान करती हूँ
वाणी जहाँ नहीं चलती,वहाँ वाण चलाती हूँ
किससे सुना तू ने कंदर,बीहड़,पहाड़,सागर
खंदक-खाई , कहाँ जाकर छुपी है विश्व की
व्याकुलता , डरती हूँ उसे ढूँढ़ने जाने से
क्या तुमको पता है , दूब फ़ूल से
खेलने वाली , यह नारी , मानवीय
मूल्यों की आहुति देना जानती है
तभी तो अपनी मैत्री की शीतल छाया में
नर को अपना सब कुछ,बेशर्त सौंप देती है
जो स्वेच्छा से अपनी सत्ता को खोकर
शून्य बनकर जीना पसंद करती है,भला
वह क्या डरेगी, अपने अश्रु शोणित से
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