अपना प्रेमास्पद चित्र चित्रित कर गया
भाग्य गगन के धुँधले प्राची पट पर
इतना प्रभापूर्ण प्रकाश किसने आकर फैला दिया
शून्य - शून्य रहती थी , जहाँ खेलती थी छाया
कौन है जो प्रणय किरणों-सा अपने कोमल बंधन से
मेरे तन -मन को बाँधकर , मेरे हृदय -प्राण में
अपना प्रेमास्पद चित्र चित्रित कर गया
कौन है , जो अपने प्रेम कलरव से आवृत कर
मेरे मनोभाव के सोये विहग को जगा दिया
जहाँ रहती थीं हाहाकार भरी, पीड़ा की तरंगें
वहाँ हँसने लगी किरणों की तरंगों सी मेरी प्रसन्नता
कामना के उत्तुंग शिखर पर आकार में बड़े-बड़े
होकर खिलने लगी, महकने लगी फूल-अभिलाषा
हृदय का लाल रस ,रक्त कंदर्प संग मिलकर
मलिन हो चुका था कब का, किसने आकर आज
इस कंदर्प में अचानक उन्मादक फूल खिला दिया
घटा सी उमड़ रही मेरी आह को
व्योम से उतारकर , धरातल पर ला खड़ा किया
उजड़े वन,सूखे समुद्र,धूसर अम्बर से मुझको प्यार था
विष-लता को निचोड़कर पीने का अभ्यास था
किसने अपने हृदय- हिमालय को पिघलाकर
मेरे प्राण कदमों के नीचे, शीतल गंगा बहा दिया
देखकर सुषमा को उमड़ती, द्रुमों से लता को लिपटती
मेरी रक्त शिराएँ हो उठती थीं कँपित ,नयनों से ढ़लता था नीर
समय वक्ष को चीरकर किरणें आती थीं पहले भी, फिर भी
मेरा जीवन वीरान था,अँधेरा था, किसने मेरे हृदय के कोने-
कोने को छूकर सोना बना दिया, जो किरणों में उज्ज्वल
गीत गूँथे होते हैं मेरे लिए, सौरभ समीर बहता है मेरे लिए
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