अपनों ने बिंधा था मेरे वक्ष को
प्रिये! हो अगर फुर्सत में,तो चलो आज
मेरे संग , स्मृति के पंखों पर चढकर
अतीत की उस रणभूमि में दिखाता हूँ
तुमको मैं,वह स्थान जहाँ की मिट्टी को
सींचा था मैंने अपने अश्कों से, जहाँ
बिंधा मेरे वक्ष को, अपनों का ही वाण
उन जख्मों का लहू आज भी स्वर स्रोतों में
बह-बह कर अनजान तरु, तृण, लता अनिलतप
जल-थल को सुनाता है गा-गाकर गान बतलाता है
किस तरह मेरे अरमानों का हुआ था कत्ले आम
कैसे दिल लाचार मेरा,निकला था होकर बदनाम
चलो आज प्रिये दिखलाता हूँ तुमको वह स्थान
जिसे सुनकर सिहर – सिहर उठता आकुल का प्राण
काँपने लगता उडुदल , दौड़ने लगती , शिरा-शिरा में
तरल शोणित की अग्नि धारा, आने लगती पीले
पत्रों से मरमर की आवाज, मन दीप हो उठता अशांत
व्याकुल् व्यग्रता अपनी-अपनी असीम कल्पना से मन को
हाँक - हाँक़कर, तन के उस जल को कर देता मलिन
जिस स्वच्छ जल में,बिंबित होता था कभी अपनों का मुख
सरित जल में तैरती, नील घन की चंचल छाया सी
नयनों की ज्योति रहती थी सांद्र वन के समान हरी
तुमने सुना होगा अनल नाद ,अलि का गुनगुन
पक्षी का कलरव , सावन की बूँदों की रुनझुन
मगर सुना न होगा तुमने कभी, झरनों के उस
स्वर को, जो हिमानी सूत्रों में बंधकर , जमसे
जाते हैं घन में , और अनंतकाल तक रहते हैं
पर्वत शिलाओं के मौन हृदय में अंकित
जब मर्यादा तोड़कर समीर सिंधु में लहराता है
तब फूटकर यह प्रेम पाषाण से स्रोतस्विनी बन
बहने लगती, देवभूमि तक जाते -जाते गंगा
कहलाने लगती,जो सबके मन को करती हर्षित
तुम नहीं जानती, जब शिशिर क्रांत बन
रोदन करता, भू का मन बनकर तब युगपिक
के प्राणों में पावक धधकता धू-धूकर
भू की ममता मिटती जाति, मेघों की चंचल
छाया सी, प्राणी जीवन के सपने सौरभ से
उड़ जाते, उर क़ी लाली लेकर, पर्वत पर पर्वत
सा खड़ा रहता, मनुज भीम -तृष्णा को लेकर
तब छाया तप में, तृण अंचल में निःस्वर होकर आशा
मौन-मंद्र गर्जन करती,काँपती हुई विचरणकरती धरती पर
समीर से लिपटकर विटप को,पल्लवों को रोमांचित करती
अँगराई लेने सिखलाती बाँह खोलकर , बादल में भरती
ममता खुद को अपना मित्र बताकर , जिससे कि शोभा
उर को अमरदान दे सके,अंतर्तम को झंकृत कर,अश्रु-स्नात
धरती में मधुरता भर सके, शरद से शुभ्र सुंदरता लेकर
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