डा० श्रीमती तारा सिंह
असल गया,सूद गया । रात , आँधी ऐसी आई कि मेरा घर उजड़ गया । सब कुछ बिखर गया,अब मेरे पास कुछ नहीं ,बोलकर गुप्ता जी, शर्मा जी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए फ़फ़क- फ़फ़क कर बच्चों की भाँति रो पड़े । पास खड़ी,शर्माजी की पत्नी, मीरा को गुप्ताजी की बात कुछ समझ में नहीं आई । आखिर एक धीर- गम्भीर, पेशे से इंजीनियर रहे इस इन्सान को अचानक क्या हो गया ; जो बोल रहे हैं,’रात आँधी ऐसी उठी कि मेरा सब कुछ बिखर गया । असल –सूद, सब कुछ अपने साथ उड़ा ले गई । मेरे पास, अब कुछ नहीं बचा । जब कि रात,हवा बिल्कुल गुम साधे थी । एक पता तक नहीं हिलता था । हम सभी लोग गर्मी से बेहाल, हैरान और पड़ेशान, रात भर सोये नहीं । वहीं ये आँधी की बात कर रहे हैं । लगता है, गुप्ताजी पी लिए हैं या, उनकी मनोस्थिति अच्छी नहीं है । तभी पास से गुजर रहे ,शर्माजी के अजीज दोस्त, त्रिपाठी जी , गुप्ताजी को रोते देख, ठिठक कर खड़े हो गये । गुप्ताजी का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछने लगे,’ कल शाम तक तो आप बिल्कुल भले-चंगे थे । ये अचानक ,आपको क्या हो गया । इस तरह की उल्टी-सीधी बातें ,आप क्यों कर रहे हैं । जहाँ रात एक पत्ता नहीं हिला, आप कहते हैं, रात आँधी ऐसी उठी,अपने साथ मेरा सब कुछ उड़ा ले गई । मैं आपके घर की ओर से ही होता हुआ यहाँ आ रहा हूँ । जहाँ तक मैंने देखा, आपके घर के ऊपर का एक खपड़ा भी नहीं दरका है । फ़िर उड़ा कैसे ले गई ।’ त्रिपाठी जी (मन ही मन),’ लगता है, आपका दिमाग अपनी जगह से खिसक गया है और कुछ नहीं हुआ । अब आपको इलाज की जरूरत है, आपको डाक्टर दिखाना होगा ; नहीं तो अभी से इस हालात में आगे की जिंदगी कैसे गुजारेंगे । पत्नी तो है नहीं, जो बेचारे को संभालेगी । हमीं लोगों को कुछ
करना होगा --- कहते हुए त्रिपाठी जी , गुप्ताजी को अपने पास बैठने की जगह देते हुए बोले,’ ठीक है,यार ! हमलोग मान लिये, रात की आँधी में तुम्हारा घर उजड़ गया । लेकिन, इसके लिए औरत की तरह, रोने की क्या बात है ? दिन उगने दो, उसे ठीक करवा दिया जायगा । पैसे की कमी तो तुमको है नहीं, बेटा अच्छा-खासा क्लर्की में तनख्वाह के साथ घूस का पैसा ले आता है । इसलिए अब यह चिंता छोड़ो । ’ लेकिन गुप्ताजी थे कि सिसक-सिसककर रोते चले जा रहे थे । हैरान-पड़ेशान, शर्माजी की पत्नी को समझ में नहीं आ रहा था, छ्प्पड़ उजड़ ही गया तो इसमें इतना रोने का क्या है, वह भी एक मर्द को , बात कुछ पचती नहीं है । निश्चय ही बात कुछ और है,जो कि ये छिपा रहे हैं । तभी उन्हें याद आया; आज से दो दिन पहले वर्षा हुई थी, मौसम,काफ़ी अच्छा था ; लेकिन गुप्ता जी बोल रहे,’ मौसम कुछ ठीक नहीं है ।’ शर्माजी की पत्नी और इंतजार न कर, अपने पति से कही,’आप इनसे सहानुभूति के साथ पूछिये, कि आखिर हुआ क्या है ?’
शर्मा जी अपने कंधे पर गुप्ता जी का सर रखते हुए कहे ,’ यार ! सच-सच बताना, आखिर बात क्या है ।’ अपनेपन का एहसास महसूस करते ही रात का सारा वृतांत गुप्ताजी बताना शुरू कर दिये ; ’सोनू को आप सभी जानते हैं न ,वह मेरा सदा ही अज़ीज रहा । बेटे से भी बढ़कर उसे प्यार मैंने दिया । उसकी जरूरत की चीजें,उसके मुँह खोलने से पहले, उसके सामने लाकर हाजिर किया । बचपन से कालेज़ तक, उसका टिफ़िन लेकर पहुँचाता रहा । तभी बात काटते हुए बीच में शर्माजी बोल पड़े,’ हाँ-हाँ, हम सभी इस बात को जानते हैं । इसे आज आपको बताने की जरूरत क्यों पड़ गई ।’ गुप्ताजी अंगोछे से आँसु पोछते हुए ,’सुनो तो सही । कल रात और दिनों की तरह,जब मैं अकेला खाने बैठा, दाल में नमक
कम था । मैंने बहू को आवाज लगाई,’बेटी मीणा ! पर कोई उत्तर नहीं आया । तब मैंने आवाज को थोड़ी ऊँची कर पुकारा,’ बेटी मीणा ! कहाँ
चली गई,जरा इधर आना ।’ साड़ी के पल्लू को बाँहों में लपेटते हुए बहू अपने कमरे से बाहर निकली और मेरी ओर देखते हुए चिल्लाना शुरू कर दी,’ क्या हुआ आपको ? खाना खाकर सोने क्यों नहीं जाते ।’ मैं बोला,’ बेटा ! थोड़ा नमक दे दो , दाल में नमक कम है । ’ मेरी बात खतम भी नहीं हो पाई थी कि बेटा , आगबबूला होता हुआ , दौड़ता हुए कमरे से बाहर निकला । पत्नी का हाथ पकड़कर कहने लगा, चलो,सो जाओ । इन्हें चिल्लाने दो । दो –चार बार चिल्लाकर ,शांत हो जायेंगे । इनकी तो आदत हो गई है । जब माँ थी, तब भी इनका यही रवैया था । पूरा खाना खतम करने के बाद, जब हाथ धोने जाते थे, तब माँ से कहते थे,’ सब्जी में नमक थोड़ा कम था । दाल आज तुमने बड़ी गाढ़ी बनाई, इत्यादि,इत्यादि । ’ लेकिन इनको समझना चाहिए, माँ, अब नहीं है । घर की पूरी जिम्मेदारी ,बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ,सब एक आदमी को देखना पड़ता है । अपनी आदत को न सुधारकर,लोगों को केवल पड़ेशान करना जानते हैं । जानते हो, कलह और न बढ़े;’मैंने बेटा-बहू से हाथ जोड़कर विनती की,’तुम दोनों इतना नाराज मत हो, नमक ही माँगा था न । आने की इच्छा नहीं थी तो, भीतर कमरे से ही बोल देता ,’हमलोग सो गये हैं । अभी के लिए,आप जैसा है, वैसा खा लीजिए ।’ मेरी बात खतम भी नहीं हो पायी थी ,कि सोनू आ गया । अपने पिता की ओर मुँहकर, पूछने लगा, ’क्या बात है,आपलोग किस बात पर इतना शोर मचा रहे हैं । मैं सो नहीं पा रहा हूँ । ’ सोनू को मैं
बताना ही चाह रहा था कि राजेश (सोनू) मुझे चुप कराते हुए,बोल पड़ा ,’मैं आपसे नहीं ,अपने पापा से बात कर रहा हूँ । आप बाद में बोलियेगा ।’ मैं
सोनू के इस व्यवहार से बहुत दुखी हुआ , जिसे मैं अपने बुढ़ापे का सहारा समझ रहा था, आज उसने भी अपने माँ-बाप के साथ मिलकर, मुझे डाँट लिया । अपने माता-पिता से पूरी वृतांत सुनने के बाद सोनू ने मुझे इस घर में रहने के लिए दो बातों की गाँठ बाँध रखने की हिदायत दी - पहला, जैसा भी खाना बने, मुँह बंदकर खा लीजिए और दूसरा – अगर अच्छा न लगे तो, अपना खाना,आप अलग बना लिया कीजिए; मगर चीखना- चिल्लाना बंद कीजिए ।’ भला सोचो शर्माजी, अब मेरी उम्र रही कि मैं खाना बनाकर खा सकूँ । गुप्ताजी की बातों को सुनकर पास खड़े सभी दोस्तों के पाँव के नीचे की जमीन खिसक गई । सबों की आँखें छलछला उठीं । सभी एक स्वर में बोल पड़े,’सचमुच गुप्ताजी, रात आँधी ऐसी आई, संग असल,सूद सब उड़ा ले गई । आपका घर बिखर गया । रिश्ते नमक के भाव नीलाम हो गये , बची जिंदगी भार बन गई ।
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