Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अश्रु से भीगे आँचल पर सब कुछ धरना होगा

 

इतिहास गवाह है,जब से यह लोक बना है
तब से नर अभिमानी,नारी से रूठता आया है
कहता , नारी  तुम  केवल  श्रद्धा  हो , तुमने
जनमते  ही  अपने  सोने - से  सपने  को
नर   को  दान   कर  दिया    है ,  इसलिए
अलग  तुम्हारी अपनी  कोई  पहचान  नहीं
तुम्हारा     अपना     कोई   अरमान     नहीं
तुम  नर  कर  का  एक खिलौना  मात्र हो
 
तुमको   अपने   अश्रु      से   भीगे  आँचल   पर
मन  का  सब  कुछ  रखना   होगा , उपेक्षामय
यौवन बह रही है जो , तुम्हारे  तन के  भीतर
मधुमय रस की तीव्र धारा,उसमें नर तपस्वी को
स्नान     करने   देना    होगा ,   क्योंकि  तुम
विश्व  कमल  की   मृदुल  मधुकरी  रजनी  हो
 
प्रभु   नारी  की   हृदय   व्यथा      को      समझनेवाला
तुमको  छोड़कर , दूसरा  इस  जहाँ  में  और कोई नहीं
सब  के  सब   हैं  हमारे  दुख  को  बढाने  में  शामिल
एक , दो   हो   तो   नाम   गिनाऊँ , यहाँ  तो     गाँव
मुहल्ला , देश ,दुनिया अपने - पराये सभी बैठे रहते  हैं
घात  लगाये कब हमारे मन -क्षितिज पर पराभव  के
मेघ भयंकर कब उठे,कब हमारे घर आये दुख की आँधी
 
सामने  रिश्ते  का  भव्य  चरण  रहता
फिर  भी  जिह्वा  पर व्रण जलता रहता
सोचता , हमारी  बाँहों  में   है  अम्बुधि
हम जब चाहें , धरा  धँस जाये ,हमारे
एक इशारे परआसमां धरा पर उतर आए
हम नरों का इतिहास सदा जगमग है
नारी सदैव से रहती आई है नर-बाँदी
 
नारी  अ��ला , यह  तो  बस  साँसों  की  ढेरी  है
दुख पोषित नारी का तन,जब तक पीड़ा नहीं पाती
तब   तक   इसका  मन  पुलकित   नहीं     होता
नारी  वह  आरति  है , जो  नर-मन  के मंदिर में
निस्वार्थ सदियों से जलती आ रही है और जल-जल
कर एक दिन मिट जाना धर्म कहलाता आया है
 
मैं  नर    , सागर   को      मथने  वाला
पर्वत    का  शीश  झुकाकर  देवों     के    सर
पर , विजय - ध्वज   स्थापित  करने   वाला
हमारे  इशारे  पर   तूफान   ठहरता   आया   है
हम  जहाँ  चाहते , मेघ  वहाँ  जाकर    बरसता
नारी   होती , नर   की  सहधर्मिणी ,  जिसे
हर क्षण कार्य प्रिय होता है, शीत की चीत्कारें
दुख-क्र��दन भरा, उसका जग सदा से रहता आया है
 
एक तरफ तो नारी को कहा,'नारी तुम स्वयं प्रकृति हो'
तुम सिर्फ कामिनी नहीं,तुम तो परम विभा की छाया हो
तुम्हारे  उर  में   सलिल  धार  है , तुम्हारा  ही     रूप
उषा   की   प्रभा  बनकर , समस्त  भुवन  पर  छाया है
तुम्हारे   बिना   जग   की   कल्पना  भी  निरर्थक  है
 
फिर भी नारी जन्मांतर से ही क्यों, नर -देवताओं से
जूझती आई है,श्रांत चित्त  थकी-थकी सी क्यों जीती है
मातृ - पद  को  पाकर , हमारी धरती कितनी पवित्र है
वहीं     नारी  माँ  बनकर  भी   कितनी   कलुषित    है
नर कहता ,नर और नारी के आकारों में अंतर तो है ही
त्वचा  जाल  और  रक्त   शिराओं  में    भी  अंतर  है
 
इसलिए     नारी    की  बुद्धि ,  चिंताकुल होकर
सोच  नहीं  पाती , कैसे  करें ,क्या करें जिससे कि
नर  समान  हमारा  भी  सुख  पर  अधिकार  रहे
ज्यों  समीर ध्येय से मुक्त होकर बहता आया है
नारी फलाशक्ति से मुक्त क्रिया में निरत रहती आई है
 
लेकिन      मुझे   विश्वास   है , जिस     दिन    नारी
सोच  लेगी , हमें  कंदर्प   बनकर   नहीं    जीना    है
नर ,  नारी   एक  ही  रंग  की  युगपद  संग्याएँ हैं
तब कमल -कंदर्प का यह भेद , आप मिट जायेगा
क्योंकि  ईश्वरीय  गुण    में   कोई   भेद   नहीं  है
यह तो सोच का अभाव,द्वैतमय मानस की रचना है

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