Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अतीत बड़ा विचित्र होता

 

अतीत बड़ा विचित्र होता


तुमने सुनाकर अतीत का गान

खींच लिया अपनी ओर ध्यान 

मैं भाव विभोर होकर, तिमिर नद में

डूब गई, मात्र हृदय - दाह, प्रेम नहीं

होता, रहा न इसका मुझको ग्यान 


पराधीन पुतली - सी मैं गरज उठी

कहाँ है वह मेरा अतीत जहाँ मैं

दिन भर रहती थी पिया के संग , समग्र 

रजनी प्रणय कथा में जाती थी बीत 


आज फिर से क्यों जगा दिया तुमने 

मेरे हृदय में अतीत दर्शन की चाह 

बड़ा विचित्र होता यह ,तुमको नहीं पता

समय - असमय का जरा भी ख्याल नहीं रखता

चूम - चूमकर जगाता मृत करने, करता नहीं परवाह 


आज भी मेरे श्रुति पट पर होता है

उसके उत्तप्त साँसों का स्पर्श 

अधरों में होती है रसना की गुदगुदी

त्वचा पर रसभाति उँगलियों कासंचरण 

मगर तरंग चुम्बित सैकत में कितनी

कोमलता है, जान सकता केवल त्वचा नग्न 


कभी - कभी अतीत जीवन की सूखी

डाली पर , नव कोपला बनकर फूटता है

मगर इसे पहचान पाता कौन इसकी

मूकता के गहन परिधि को पारकर 

अतीत के गुंजार को सुनता कौन 


अंतर मन को पूछकर देखो

प्राणॉं की चाभी रहती वहीं पड़ी

बिना अतीत पूजन का ,जीवन 

सुख संभव नहीं, बाहर इस

ज्वलित द्विधा का कोई उत्तर नहीं है

मगर अंतर में झाँककर देखो

जीवन की कुंजी रहती वहीं पड़ी


इसलिए यह कहना गलत होगा

यहाँ केवल शून्य - शून्य है, किसी

का कोई निश्चित आकार नहीं है

अतीत ओपहीन होता, मगर आकार -

हीन नहीं रहता; काल का उड़ता हुआ

यह एक अक्षर है, जो घनघोर तिमिर में

छुपा रहता, कहीं देह धरकर बैठा नहीं रहता

परिवर्तन प्रकृति की प्राण - धारा है

इसी में मूक बन बहता रहता

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