भू के मौन भीते पर जी नहीं लगता मेरा
प्रिय ! आज अचानक जाने क्यों ,अतीत के बहु स्वप्न
एक साथ मिलकर , व्यथित कर रहे हैं मेरे अंतर को
अब भू के मौन भीटे पर जी नहीं लगतामेरा
हर क्षण कोई नामचीन सौरभ , अकुलाता मेरे मन को
नयनॉं में शोभावसनों सी काँपती, उसकी यादों की छाया
लहलहा उठता वह पेड़, जो बरसों से मेरे आँगन में
रहता आया था, बनकर तुलसी का चौरा
जितन घना था वह, उतनी ही शीतल थी उसकी छाया
नयनों में कल्याण बना, आनंद सुमन-सा रहता था विकसा
वर्षा की बौछारें पत्तियों से छन -छनकर , गिरती थी जब दीवारों पर
देख हम सभी बच्चे मगन होकर , नाचते थे ताली दे-देकर
प्राणातुर विहग गाते थे खुशी में सुख के गीत , गिलहरियाँ
भागती थीं, फुदक -फुदककर टहनी से फुनगियों पर
आज भी वह पेड़ जीर्ण जगत के विषन्न उद्यान में
भू -लुंठित होकर है कराह रहा, सैकतों में सरि को खोज रहा
घूँट भर , घूँट भर पानी का रटन लिए इस जग से विदा ले रहा
हवायें, जो कभी उसके वंदन में चलती थीं रुक -रुककर
शशि, रवि नमन करते थे झुक -झुककर , अब नहीं जाता
वहाँ, उस क्लांत उर में आनंद बरसाने , जिससे फिर से
जी सके जग - जीवन का अंग बनकर
कभी जिसकी छाया भी, गमकती थी महमह कर
नहलाता था हम सबों को, स्नेह सलिल से जो
अपने अंकों में भर-भरकर , तम में भी खड़ा
रहता थ जो हमारे साथ , संधि नहीं संबंधी बनकर
फट ज रह है आज मेरा अंतर , उस तापस की
समाधि को देखकर , आत्मदंशन की व्यथा, पश्चात्ताप
परिताप , सभी डँस रहे हैं मुझको एक साथ मिलकर
नियति नटी के खेल -कूद में वह कुसुमित उद्यान
अब नहीं रहा, भस्मभूत हो गया, आज भी इस
करूण कहानी को. नव पीढियों को भरे गले से
सुनाते हैं हमारे गाँव के बुजुर्ग , कहते हैं तुमलोग जिसे
खंदहर , भूतघर से जानते हो, सदैव से ऐसा नहीं था
कभी यहाँ रहती थी बच्चों की तुमुल रोर , चहल -पहल
और हर पल मंगल मोद का कोलाहल उठता रहता था
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