Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर

 


बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर

 

         आधुनिक भारत के इतिहास में जिन महापुरुषों ने अपने विचारों से समाज को प्रभावित किया, उनमें महात्मा गाँघी, सरदार पटेल, तिलक, जवाहर के साथ अंबेडकर का भी नाम शामिल है ; लेकिन इनलोगों के सामने अंवेडकर का प्रभाव कुछ कम रहा , कारण उनके ऊपर आरक्षण एवं दलित नेता का लेबल चिपका रहा । यही कारण है कि उनके विचारों को वो प्राथमिकता नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी । दलितों के इस मसीहा को लोग दलित उन्नायक, दलित मुक्ति के अग्रदूत, डॉ० साहेब, बाबा साहेब, बाबा अंबेडकर ऐसी कितनी ही संग्याओं से याद किया करते हैं । 

          अद्वितीय प्रतिभा के धनी डॉ० अंबेडकर का जन्म 1891 में मऊ ( मध्य प्रदेश ) में एक हिन्दू धर्म की महार जाति में हुआ था, जिसे तब के समाज में अछूत का दर्जा दिया गया था । सवर्णों की पैशाचिक मनोवृति से वे दलित और उपेक्षित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे । यह सब उनकी मानसिकता को उद्वेलित किया करता था । बाबा साहेब की समन्वयवादी चेतना इसी का परिणाम है, उनकी स्वानुभूतिमयी चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार किया ,और उनके मौलिक चिंतन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार करने की कोशिश की । वे चाहते थे, कि सवर्णों के प्रभुतावाद के सामने, दलित व शोषित शूद्र साहस पूर्वक अपने-अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो सकें ; इसके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व एवं सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया ।

         वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की श्रेष्ठता की मिथ्या सिद्धि, 

डॉ० अंबेडकर द्वारा अपनाये गये समन्वयवादी मानव धर्म का ही एक अंग है , जिसे उन्होंने मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित करने की कोशिश की । भक्त रविदास की यह पंक्तियाँ सौ प्रतिशत उनकी सोच को चरितार्थ करती है----- -  -  -  -

                      “जन्म जात मत पूछिये, का जात अरु पात “  ;  

हम सभी मानव जाति हैं, जिसे बनाने वाला एक है; हम सभी उनके पूत हैं ।

इस तरह समाज के व्यापक हितों की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत बाबा साहेब एक महान व्यक्तित्व के व्यक्ति थे । वे हमेशा एक समाज सेवी बनने के लिए तैयार रहते थे । उनका यह संदेश, आजादी के दौरान जितना प्रासांगिक लगता था, आज उससे कहीं ज्यादा प्रासांगिक प्रतीत होता है - - - - 

(1)  शिक्षित बनो  (2)  संगठित रहो (3) संघर्ष करो ।

उनके 18  ऐसे विचार थे, जो उन्हें इतिहास-पुरुष साबित करता है ; जिनमें मुख्य हैं - - - - 

(1)  मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ, जो स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा सिखाता है ।

(2)  जीवन लम्बा होने के बजाय महान होना चाहिये ।

(3)  महान व्यक्ति प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है ।

(4)  हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं ।

(5)  इतिहास बताता है, जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र में संघर्ष होता है, वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है जिसे स्वेच्छा से नहीं छोड़ा जा सकता, जब तक बल प्रयोग कर मजबूर न किया जाय ।

(6)  यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग हो रहा है, तो मैं सबसे पहले इसे जला दूँगा ।

(7) एक सफ़ल क्रांति के लिए सिर्फ़ असंतोष का होना काफ़ी नहीं है । आवश्यकता है राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के महत्व ,जरूरत व न्याय का पूर्णतया गहराई से दोषरहित होना ।

(8)  जब तक सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देती है, वह आपके लिए बेईमानी है ।

(9)  समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फ़िर भी इसे एक गवर्निंग ( शासकीय ) सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना होगा ।

         बाबा साहेब के जीवन की छोटी- छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बंधी उनके गुणों का ग्यान मिलता है । वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमावाई की चौदहवीं और अंतिम संतान थे । उनका परिवार मराठी था । उनके पूर्वज लम्बे समय तक ब्रिटिश ईष्ट इन्डिया

कम्पनी में कार्यरत रहे । उनके पिता भारतीय सेवा में मध्य प्रदेश के मऊ छावनी में सेवारत थे । अपनी कर्मठता के बदौलत सूबेदार के पद तक पहुँचे । उन्होंने मराठी अंग्रेजी में औपचारिक डिग्री प्राप्त किया था । वे अपने बच्चों को हमेशा रामायण, महाभारत पढ़ने और जानने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे । उन्हें अपने बच्चों की प्राथमिक पढ़ाई के दौरान अपनी जाति के कारण अनेकों बार सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । स्कूल की पढ़ाई में अव्वल रहने के बावजूद बाबा साहेब को बचपन में अन्य बच्चों से अलग बिठाया जाता था । उन्हें पढ़ाने वाले अध्यापक भी उनके साथ सौतेला व्यवहार किया करते थे । उनको कक्षा के अंदर बैठने की अनुमति नहीं थी । इतना ही नहीं, प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति के बच्चे उन्हें अपने बर्तन में पानी पीने नहीं देते थे , बल्कि ऊँचाई से पानी उनकी चुल्लू में गिराया जाता था । अन्य जातियों के अनुसार, ऐसा नहीं करने से पात्र और पानी ,दोनों अपवित्र हो जायगा । इसलिए आम तौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था । चपरासी की अनुपस्थिति में बाबा साहेब को प्यासा ही रहना पड़ता था । पिता सकपाल सेना से सेवा निवृत होने के बाद सपरिवार सतारा आ गये, और वहीं रहने लगे । लगभग दो साल बाद उनकी माँ भीमावाई की मृत्यु हो गई । तब बाबा साहेब तथा इनके भाई-बहनों की देख-भाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहकर भी की । अपने सभी भाई-बहनों में केवल अंबेडकर ही स्कूल परीक्षा में सफ़ल हुए ; उसके बाद बड़े स्कुल में पढ़ने गये । वहाँ वे अपने एक ब्राह्मण शिक्षक ( नाम था महादेव ) के कहने पर अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़े , जो कि उनके गाँव के ’अंबावडे’ पर आधारित था ।

               अपनी पत्नी के देहावसान के बाद , उनके पिता सकपाल, 1898 में पुन: दूसरी शादी किये और वहाँ से आकर मुम्बई में बस गये । उसके बाद बाबा साहेब की हाई स्कूल की शिक्षा मुम्बई में ही हुई । यहाँ पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद उन्हें जातिवाद और छूआछूत की विषाक्त घूँट पीनी पड़ी । वे हाई स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर 1906 में कॉलेज में प्रवेश लिए । उस दौड़ान , उच्च शिक्षा पाने वाले , वे पहले अस्पृश्य छात्र थे । इस सफ़लता से उनकी जाति, समुदाय में खुशियों की लहर दौड़ गई और उन्हें सार्वजनिक समारोह कर सम्मानित भी किया गया । कहते हैं, इसी समारोह में उनके शिक्षक कृष्णाजी ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की । 1912 में वे राजनीति विग्यान और अर्थशास्त्र में डिग्री प्राप्त किये । उसके बाद बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी ली और अपनी पत्नी तथा एक साल के बेटे को लेकर मुम्बई से बड़ौदा चले आये । लेकिन जल्द ही उनके पिता की बीमारी का समाचार आया, जिसके चलते उन्हें मुम्बई लौट जाना पड़ा । उनके पिता की मृत्यु 2 फ़रवरी 1913 को हो गई ।

            1922 में बड़ौदा के गायकवाड शासक ने उन्हें एक वकील के रूप में कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिए चुना, साथ ही इसके लिए 11.8 डॉलर प्रति मास की छात्रवृति भी प्रदान की । वहाँ उन्हें राजनीति विभाग के स्नातक कार्यक्रम में प्रवेश दिया गया । 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए ’पीएच० डी” की उपाधि मिली, जिसे उन्होंने ’इवोल्युशन ऑफ़ प्रोविन्सियल फ़िनान्स इन ब्रिटिश इन्डिया’ के रूप में प्रकाशित किया । वे अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री लेकर वे लंदन चले गये , जहाँ उन्होंने ग्रेस इन और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में शोध के लिए अपना नाम लिखवा लिया, लेकिन छात्रवृति बंद हो जाने के कारण उनको भारत लौट आना पड़ा । वहाँ से लौटकर वे पुन: बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करने लगे, लेकिन यहाँ काम करते हुए , अपने प्रति भेदभाव से परेशान होकर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी । इसके बाद ट्यूटर तथा लेखाकार के रूप में काम करने लगे । लेकिन पुन: एक बार अपने पारसी मित्र के सहयोग एवं अपनी वचत राशि के कारण 1920 में इंगलैंड जाने में सक्षम हुए । 1923 में वे अपना शोध ’ प्रोब्लेम्स ऑफ़ द रुपी’ पूरा किये । उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ़ साइन्स ’ की उपाधि दी गई । उनकी कानून की पढ़ाई पूरी होने के साथ उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया ।

              1920 में उन्होंने मुम्बई में साप्ताहिक मूकनायक का प्रकाशन आरम्भ किया । जब पाठकों के बीच यह प्रकाशन बहुत लोकप्रिय हो गया, तब उन्होंने इसका इस्तमाल रूढ़िवादी हिन्दू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति, भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिए की । उसके बाद उन्होंने वहिष्कृत हितकारणी सभा की स्थापना की , जिसका उद्देश्य था दलित वर्गों में शिक्षा का प्रचार और उनके सामाजिक, आर्थिक उत्थान के लिए काम करना । 1926 में वे मुम्बई विधान सभा के मनोनीत सदस्य बने । 1927 में उन्होंने छूआछूत के खिलाफ़ एक व्यापक आंदोलन शुरू किया, जिसमें पेयजल के सार्वजनिक संशाधन समाज में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया । एक जनवरी 1927  को द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध की कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँ विजय स्मारक में एक समारोह का आयोजन किया । यहाँ महार समुदाय के सैनिकों के नाम, संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये । 1926 में उन्होंने एक और पत्रिका ( नाम रखा ) ’ बहिष्कृत भारत की’ शुरूआत की ।

            अब तक डॉ० अंबेडकर अछूतों के सबसे बड़े राजनीतिक हस्ती बन चुके थे । उन्होंने राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति कथित उदासीनता के लिए राष्ट्रीय काँग्रेस और उसके नेता गाँधीजी की भी आलोचना की । उन्होंने उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे अस्पृश्य समाज को एक करुणा की वस्तु समझते हैं । वे ब्रिटिश शासन की विफ़लता पर भी असंतुष्ट थे । वे चाहते थे कि अस्पृश्य समुदाय के लिए एक ऐसी राजनैतिक पहचान हो, जिसमें काँग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही दखल न हो । 1930 में शोषित वर्ग के सम्मेलन में उन्होंने खुलकर अपनी राजनीतिक दृष्टि दुनिया के सामने रखी, कहा---- शोषित वर्ग की सुरक्षा सरकार और काँग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है । उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि हम अपना रास्ता स्वयं बनायेंगे, तभी हमारा उद्धार, समाज में उचित स्थान पाने से होगा । साथ ही, यह भी कहा--- ’हमें भी अपने रहने का बुरा तरीका बदलना होगा’  । इस भाषण में काँग्रेस और गाँधीज

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ