बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर
आधुनिक भारत के इतिहास में जिन महापुरुषों ने अपने विचारों से समाज को प्रभावित किया, उनमें महात्मा गाँघी, सरदार पटेल, तिलक, जवाहर के साथ अंबेडकर का भी नाम शामिल है ; लेकिन इनलोगों के सामने अंवेडकर का प्रभाव कुछ कम रहा , कारण उनके ऊपर आरक्षण एवं दलित नेता का लेबल चिपका रहा । यही कारण है कि उनके विचारों को वो प्राथमिकता नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी । दलितों के इस मसीहा को लोग दलित उन्नायक, दलित मुक्ति के अग्रदूत, डॉ० साहेब, बाबा साहेब, बाबा अंबेडकर ऐसी कितनी ही संग्याओं से याद किया करते हैं ।
अद्वितीय प्रतिभा के धनी डॉ० अंबेडकर का जन्म 1891 में मऊ ( मध्य प्रदेश ) में एक हिन्दू धर्म की महार जाति में हुआ था, जिसे तब के समाज में अछूत का दर्जा दिया गया था । सवर्णों की पैशाचिक मनोवृति से वे दलित और उपेक्षित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे । यह सब उनकी मानसिकता को उद्वेलित किया करता था । बाबा साहेब की समन्वयवादी चेतना इसी का परिणाम है, उनकी स्वानुभूतिमयी चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार किया ,और उनके मौलिक चिंतन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार करने की कोशिश की । वे चाहते थे, कि सवर्णों के प्रभुतावाद के सामने, दलित व शोषित शूद्र साहस पूर्वक अपने-अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो सकें ; इसके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व एवं सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया ।
वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की श्रेष्ठता की मिथ्या सिद्धि,
डॉ० अंबेडकर द्वारा अपनाये गये समन्वयवादी मानव धर्म का ही एक अंग है , जिसे उन्होंने मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित करने की कोशिश की । भक्त रविदास की यह पंक्तियाँ सौ प्रतिशत उनकी सोच को चरितार्थ करती है----- - - - -
“जन्म जात मत पूछिये, का जात अरु पात “ ;
हम सभी मानव जाति हैं, जिसे बनाने वाला एक है; हम सभी उनके पूत हैं ।
इस तरह समाज के व्यापक हितों की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत बाबा साहेब एक महान व्यक्तित्व के व्यक्ति थे । वे हमेशा एक समाज सेवी बनने के लिए तैयार रहते थे । उनका यह संदेश, आजादी के दौरान जितना प्रासांगिक लगता था, आज उससे कहीं ज्यादा प्रासांगिक प्रतीत होता है - - - -
- शिक्षित बनो (2) संगठित रहो (3) संघर्ष करो ।
उनके 18 ऐसे विचार थे, जो उन्हें इतिहास-पुरुष साबित करता है ; जिनमें मुख्य हैं - - - -
- मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ, जो स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा सिखाता है ।
- जीवन लम्बा होने के बजाय महान होना चाहिये ।
- महान व्यक्ति प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है ।
- हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं ।
- इतिहास बताता है, जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र में संघर्ष होता है, वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है जिसे स्वेच्छा से नहीं छोड़ा जा सकता, जब तक बल प्रयोग कर मजबूर न किया जाय ।
- यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग हो रहा है, तो मैं सबसे पहले इसे जला दूँगा ।
- एक सफ़ल क्रांति के लिए सिर्फ़ असंतोष का होना काफ़ी नहीं है । आवश्यकता है राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के महत्व ,जरूरत व न्याय का पूर्णतया गहराई से दोषरहित होना ।
- जब तक सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देती है, वह आपके लिए बेईमानी है ।
- समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फ़िर भी इसे एक गवर्निंग ( शासकीय ) सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना होगा ।
बाबा साहेब के जीवन की छोटी- छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बंधी उनके गुणों का ग्यान मिलता है । वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमावाई की चौदहवीं और अंतिम संतान थे । उनका परिवार मराठी था । उनके पूर्वज लम्बे समय तक ब्रिटिश ईष्ट इन्डिया
कम्पनी में कार्यरत रहे । उनके पिता भारतीय सेवा में मध्य प्रदेश के मऊ छावनी में सेवारत थे । अपनी कर्मठता के बदौलत सूबेदार के पद तक पहुँचे । उन्होंने मराठी अंग्रेजी में औपचारिक डिग्री प्राप्त किया था । वे अपने बच्चों को हमेशा रामायण, महाभारत पढ़ने और जानने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे । उन्हें अपने बच्चों की प्राथमिक पढ़ाई के दौरान अपनी जाति के कारण अनेकों बार सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । स्कूल की पढ़ाई में अव्वल रहने के बावजूद बाबा साहेब को बचपन में अन्य बच्चों से अलग बिठाया जाता था । उन्हें पढ़ाने वाले अध्यापक भी उनके साथ सौतेला व्यवहार किया करते थे । उनको कक्षा के अंदर बैठने की अनुमति नहीं थी । इतना ही नहीं, प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति के बच्चे उन्हें अपने बर्तन में पानी पीने नहीं देते थे , बल्कि ऊँचाई से पानी उनकी चुल्लू में गिराया जाता था । अन्य जातियों के अनुसार, ऐसा नहीं करने से पात्र और पानी ,दोनों अपवित्र हो जायगा । इसलिए आम तौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था । चपरासी की अनुपस्थिति में बाबा साहेब को प्यासा ही रहना पड़ता था । पिता सकपाल सेना से सेवा निवृत होने के बाद सपरिवार सतारा आ गये, और वहीं रहने लगे । लगभग दो साल बाद उनकी माँ भीमावाई की मृत्यु हो गई । तब बाबा साहेब तथा इनके भाई-बहनों की देख-भाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहकर भी की । अपने सभी भाई-बहनों में केवल अंबेडकर ही स्कूल परीक्षा में सफ़ल हुए ; उसके बाद बड़े स्कुल में पढ़ने गये । वहाँ वे अपने एक ब्राह्मण शिक्षक ( नाम था महादेव ) के कहने पर अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़े , जो कि उनके गाँव के ’अंबावडे’ पर आधारित था ।
अपनी पत्नी के देहावसान के बाद , उनके पिता सकपाल, 1898 में पुन: दूसरी शादी किये और वहाँ से आकर मुम्बई में बस गये । उसके बाद बाबा साहेब की हाई स्कूल की शिक्षा मुम्बई में ही हुई । यहाँ पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद उन्हें जातिवाद और छूआछूत की विषाक्त घूँट पीनी पड़ी । वे हाई स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर 1906 में कॉलेज में प्रवेश लिए । उस दौड़ान , उच्च शिक्षा पाने वाले , वे पहले अस्पृश्य छात्र थे । इस सफ़लता से उनकी जाति, समुदाय में खुशियों की लहर दौड़ गई और उन्हें सार्वजनिक समारोह कर सम्मानित भी किया गया । कहते हैं, इसी समारोह में उनके शिक्षक कृष्णाजी ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की । 1912 में वे राजनीति विग्यान और अर्थशास्त्र में डिग्री प्राप्त किये । उसके बाद बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी ली और अपनी पत्नी तथा एक साल के बेटे को लेकर मुम्बई से बड़ौदा चले आये । लेकिन जल्द ही उनके पिता की बीमारी का समाचार आया, जिसके चलते उन्हें मुम्बई लौट जाना पड़ा । उनके पिता की मृत्यु 2 फ़रवरी 1913 को हो गई ।
1922 में बड़ौदा के गायकवाड शासक ने उन्हें एक वकील के रूप में कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिए चुना, साथ ही इसके लिए 11.8 डॉलर प्रति मास की छात्रवृति भी प्रदान की । वहाँ उन्हें राजनीति विभाग के स्नातक कार्यक्रम में प्रवेश दिया गया । 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए ’पीएच० डी” की उपाधि मिली, जिसे उन्होंने ’इवोल्युशन ऑफ़ प्रोविन्सियल फ़िनान्स इन ब्रिटिश इन्डिया’ के रूप में प्रकाशित किया । वे अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री लेकर वे लंदन चले गये , जहाँ उन्होंने ग्रेस इन और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में शोध के लिए अपना नाम लिखवा लिया, लेकिन छात्रवृति बंद हो जाने के कारण उनको भारत लौट आना पड़ा । वहाँ से लौटकर वे पुन: बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करने लगे, लेकिन यहाँ काम करते हुए , अपने प्रति भेदभाव से परेशान होकर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी । इसके बाद ट्यूटर तथा लेखाकार के रूप में काम करने लगे । लेकिन पुन: एक बार अपने पारसी मित्र के सहयोग एवं अपनी वचत राशि के कारण 1920 में इंगलैंड जाने में सक्षम हुए । 1923 में वे अपना शोध ’ प्रोब्लेम्स ऑफ़ द रुपी’ पूरा किये । उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ़ साइन्स ’ की उपाधि दी गई । उनकी कानून की पढ़ाई पूरी होने के साथ उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया ।
1920 में उन्होंने मुम्बई में साप्ताहिक मूकनायक का प्रकाशन आरम्भ किया । जब पाठकों के बीच यह प्रकाशन बहुत लोकप्रिय हो गया, तब उन्होंने इसका इस्तमाल रूढ़िवादी हिन्दू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति, भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिए की । उसके बाद उन्होंने वहिष्कृत हितकारणी सभा की स्थापना की , जिसका उद्देश्य था दलित वर्गों में शिक्षा का प्रचार और उनके सामाजिक, आर्थिक उत्थान के लिए काम करना । 1926 में वे मुम्बई विधान सभा के मनोनीत सदस्य बने । 1927 में उन्होंने छूआछूत के खिलाफ़ एक व्यापक आंदोलन शुरू किया, जिसमें पेयजल के सार्वजनिक संशाधन समाज में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया । एक जनवरी 1927 को द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध की कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँ विजय स्मारक में एक समारोह का आयोजन किया । यहाँ महार समुदाय के सैनिकों के नाम, संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये । 1926 में उन्होंने एक और पत्रिका ( नाम रखा ) ’ बहिष्कृत भारत की’ शुरूआत की ।
अब तक डॉ० अंबेडकर अछूतों के सबसे बड़े राजनीतिक हस्ती बन चुके थे । उन्होंने राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति कथित उदासीनता के लिए राष्ट्रीय काँग्रेस और उसके नेता गाँधीजी की भी आलोचना की । उन्होंने उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे अस्पृश्य समाज को एक करुणा की वस्तु समझते हैं । वे ब्रिटिश शासन की विफ़लता पर भी असंतुष्ट थे । वे चाहते थे कि अस्पृश्य समुदाय के लिए एक ऐसी राजनैतिक पहचान हो, जिसमें काँग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही दखल न हो । 1930 में शोषित वर्ग के सम्मेलन में उन्होंने खुलकर अपनी राजनीतिक दृष्टि दुनिया के सामने रखी, कहा---- शोषित वर्ग की सुरक्षा सरकार और काँग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है । उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि हम अपना रास्ता स्वयं बनायेंगे, तभी हमारा उद्धार, समाज में उचित स्थान पाने से होगा । साथ ही, यह भी कहा--- ’हमें भी अपने रहने का बुरा तरीका बदलना होगा’ । इस भाषण में काँग्रेस और गाँधीजी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की भी उन्होंने आलोचना की , जिससे वे रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही काँग्रेस के कई नेताओं में भी अप्रिय हो गये । ये लोग वही नेता थे, जो पहले छूआछूत की निंदा करते थे, और उसके उन्मूलन के लिए देश भर में काम किये थे ।
अंबेडकर को अस्पृश्य समुदाय में बढ़ती लोकप्रियता और जन-समर्थन के चलते, 1931 में लंडन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आमंत्रित किया गया । यहाँ उनकी अछूतों को पृथक नेर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी नोंक-झोंक हुई । गाँधीजी का कहना था, धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका हिंदू समाज की भावी पीढ़ी को हमेशा के लिए विभाजित कर देगी , इसलिए ऐसा विचार छोड़ देना चाहिये । हालांकि 1932 में ब्रिटिशों ने दलितों को पृथक निर्वाचिका अधिकार देने की घोषणा कर दी; तब गाँधी, इस निर्णय के विरोध में पुणे के नर्मदा जेल में आमरण अनशन पर बैठ गये । गाँधीजी के इस अनशन को देश की जनता से घोर समर्थन मिला । अनशन के कारण गाँधीजी की हालत बिगड़ गई । जब देशवासियों को यह पता चला कि गाँधी मृत्यु के कगार पर पहुँच चुके हैं, जब कभी कुछ भी हो सकता है, तब जगह-जगह लोग आक्रोशित हो, लामाबंद होकर अंबेडकर के विरोध में खड़े हो गये । देशवासियों के दबाव से भयभीत हो अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली । इसके एवज में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश, पूजा के अधिकार एवं छूआछूत खतम करने की बात स्वीकार कर ली ।
1935 में अंबेडकर को मुम्बई में एक सरकारी लॉ कॉलेज के प्रधानाचार्य की नियुक्ति मिली । इस पद पर वे दो साल रहे , इस दौरान वे मुम्बई में अपना मकान भी बनबाये, जिनमें एक लाइब्रेरी भी थी और उनकी इस निजी पुस्तकालय में 50000 से अधिक पुस्तकें थीं । इसी घर में उनकी पत्नी का देहावसान हुआ । कहते हैं, उनकी पत्नी रमावाई अपनी मृत्यु के पहले तीर्थयात्रा के लिए पंढ़रपुर जाना चाहती थी , जिसकी इजाजत बाबा साहेब ने यह कहकर नहीं दिया कि उस हिंदू तीर्थ में, जहाँ उन्हें अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं । 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए अंबेडकर ने अपने धर्म परिवर्तन की बात बताई और अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ने की बात कही । 1926 में उन्होंने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की और 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें भी जीतीं । उन्होंने अपनी पुस्तक ’ जाति के विनाश’ ,जो एक शोध-पत्र पर आधारित थी; उसमें हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की उन्होंने जोरदार आलोचना की । उन्होंने गाँधीजी द्वारा रचित शब्द ’हरिजन’ पुकारने के काँग्रेस के फ़ैसले की भी निंदा की ।
अंबेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उनकी रीतियों के कड़े आलोचक थे । उन्होंने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया, मगर मुस्लिमों में बाल-विवाह की प्रथा को और महिलाओं के साथ कथित दुर्व्यवहार की कड़ी निंदा की । उन्होंने कहा,’ एक पत्नी के होते, दूसरी शादी करना, मुस्लिम महिलाओं के दुख का सबसे बड़ा स्रोत है; इसका उन्मूलन अनिवार्य है । अपने विवादास्पद विचारों और गाँधी व काँग्रेस के कटु आलोचक होने के बावजूद उनकी प्रतिष्ठा समाज में, विश्व में, अद्वितीय विद्वान विधिवेत्ता की थी । जिसके कारण ,देश के आजाद होने के बाद, काँग्रेस नेतृत्व वाली नई सरकार , अंबेडकर को कानून मंत्री बनाया और 29 अगस्त 1947 में अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नये संविधान की रचना के लिए संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया । मगर 1951 में संसद में उन्होंने अपने हिंदू कोड विल के मसौदे को रोके जाने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया । इस मसौदे में उत्तराधिकार,विवाह और अर्थ व्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की माँग की गई थी । हालांकि नेहरू जी तथा अन्य काँग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया, लेकिन संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या में इसके विरोध में उतर आये । वे 1952 में लोकसभा चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े, पर हार गये । उसके बाद उन्हें राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया । इसके बाद वे मृत्यु तक इस सदन के सदस्य बने रहे ।
वे बौद्धधर्म के प्रति आकर्षित 1950 के करीब हुए । उसके बाद वे बौद्ध भिक्षुओं के एक सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका गये । 1955 में उन्होंने भारतीय बुद्ध महासभा ( सोसाइटी ऑफ़ इन्डिया ) की स्थापना की । उनका अंतिम लेख , ’द बुद्ध एन्ड हिज धम्म’ जो कि 1956 में पूरा हो चुका था, मगर प्रकाशित उनकी मृत्यु के पश्चात हुआ । अंबेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणि से पारंपरिक तरीके से ’त्रिरत्न’ ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण किया । उसके बाद वे घूम-घूमकर हजारों की संख्या में लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया । दीक्षाभूमि नागपुर में वे 14 अक्टूबर 1956 को एक साथ 1000000 लोगों को बौद्ध धर्म में रूपांतरित कर विश्व इतिहास में जगह बना लिया । बाबा साहब की कुल 22 प्रतिग्याएँ ,जो हिन्दू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं, वे इस प्रकार हैं -- - - - - - - -
- मैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश पर विश्वास नहीं करूँगा , न ही कभी उनकी पूजा करूँगा
- मैं राम और कृष्ण, दोनों में से किसी को भगवान नहीं मानता
- मैं हिन्दूओं के अन्य देवी-देवता, गौरी और गणपति को भी नहीं मानता
- मुझे भगवान के अवतार पर विश्वास नहीं है
- मैं श्राद्ध में भाग नहीं लूँगा, न ही पिन्डदान करूँगा
- यह कहना कि भगवान बुद्ध , विष्णु के अवतार थे, यह सब पागलपन है
- मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी समारोह को नहीं स्वीकारूँगा
- मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों पर चलूँगा
- मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ
- मैं बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा
- मैं समानता स्थापित करने की कोशिश करूँगा
- बुद्ध द्वारा निर्धारित सभी पारमितों का पालन करूँगा
- मैं सभी जीवों से प्यार, और उनकी रक्षा करूँगा
- मैं चोरी नहीं करूँगा
- मैं झूठ नहीं बोलूँगा
- मैं शराब , ड्रग्स जैसी चीजों का सेवन नहीं करूँगा
- मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा
- मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ, जो मानवता के लिए हानिकारक है, क्यँकि यह धर्म असमानता पर आधारित है
- इस दुनिया में बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है
- मैं यह घोषित करता हूँ, कि मैं बुद्ध के बताये राह पर चलूँगा
- मुझे लगता है, कि इस धर्म –परिवर्तन के द्वारा मेरा दोबारा जनम हो रहा है
- मैं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करूँगा
डॉ० अंबेडकर केवल दलित के मसीहा नहीं थे, वे तो सम्पूर्ण मानव जाति का उद्धार चाहते थे । वे हिन्दूओं में सामाजिक अधिकार और महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार देने की बात करने वाले हिंदूकोड को समाज सुधार के लिए जरूरी मानते थे । लेकिन नेहरू सरकार ने अंबेडकर के रहते इस कोड को स्वीकार नहीं किया ; सच कहा जाय तो अंबेडकर के साथ भेदभाव और तिरस्कार केवल स्कूल जीवन तक ही नहीं था, उनका जीवन ऐसे तिरस्कार और अपमानों से भरा पड़ा मिलता है । एक बार अंबेडकर अपने भाई के साथ बैलगाड़ी से कहीं जा रहे थे, लेकिन जैसे ही गाड़ीवान को पता चला कि दोनों अछूत हैं, उन्हें गाड़ी से नीचे फ़ेंक दिया । निचली जाति के होने की वजह से, बड़ौदा के राजा का सचिव होने के बावजूद भी चपरासी उनके हाथ में फ़ाइल देने के बजाय फ़ेंक दिया करते थे । एक बार तो अंबेडकर को निचली जाति के होने के कारण पारसी धर्मशाला से निकाल दिया गया था । उस दौर में पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ रहा था , तो अंबेडकर दलित और शोषितों को उनके अधिकार दिलाने के लिए समाज के उच्च वर्ग से अकेले संघर्ष कर रहे थे । उनका मानना था हिंदू धर्म को छोड़ना, धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि गुलामी की जंजीर को तोड़ने जैसा है । इस घोषणा के बाद हैदरावाद के निजाम तथा कई मुस्लिम संगठनों ने उन्हें अपने धर्म में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन बाबा साहेब सबों के ऑफ़र को ठुकराकर, बौद्ध धर्म कबूल किये ।
हिन्दुत्व के प्रति कटुता के बावजूद , अंबेडकर विश्व संदर्भ में भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान रहे । विदेशियों द्वारा भारत की झूठी आलोचना करने पर डॉ० अंबेडकर हिन्दू धर्म का बचाव करते थे । जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में हिंदू धर्म की कुत्सित आलोचना की, तो अंबेडकर ने उसका मिथ्याचार दिखाने में जरा भी संकोच नहीं किया । कैथरीन ने कहा था, हिन्दू धर्म में सामाजिक विषमता है, जब कि इस्लाम में भाईचारा है , अंबेडकर ने इसका खंडन करते हुए कहा था--- इस्लाम जातिवाद और गुलामी से मुक्त नहीं है । उन्होंने कहा--- हिन्दुओं में सामाजिक बुराइयाँ हैं, लेकिन उसमें समझने और दूर करने वाले भी हैं; जब कि मुस्लिम मानते हैं, कि उनमें कोई बुराइयाँ ही नहीं,और जब बुराइयाँ ही नहीं, तो दूर करूँ किसे ? जाति-पाति, छूत-अछूत , उँच-नीच आदि विभिन्न सामाजिक कुरीतियों के दौर में अंबेडकर जैसे शख्सियत ने इस धरती पर दलितों का मसीहा बनकर अवतरण लिया, जिसने समाज में एक नई क्रांति, चेतना व सोच की शुरूआत की । देश में मनुवादी व्यवस्था के बीच समाज को ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के रूप में विभाजित किया गया था । शुद्रों में निम्न और गरीब जातियों को संग्रह करके उन्हें अछूत की संग्या दी गई, और उन्हें नारकीय जीवन जीने के लिए विवश कर दिया था । उन्हें अन्य जातियों द्वारा छूना पाप था । अछूतों को तालाबों,कुएँ, मंदिरों, शैक्षणिक संस्थाओं आदि जगहों पर अपना कदम रखना मना था । जो इन अमानवीय नियमों का उल्लंघन करते थे, उन्हें कोड़े, लातों, घूसों से पीटा जाता था । उनसे बेगार करवाई जाती थी, मैले ढुलवाये जाते थे । गंदगी उठवाई जाती थी, और तो और, कहते हैं अछूत जब चलते थे , तब अपने कमर में पीछे एक झाड़ू बाँधे रखते थे , जिससे उनके पैरों के निशान मिटते चले जाँय, कारण कब ब्राह्मण , क्षत्रिय उधर से गुजरें क्या पता ? उन्हें बाँस की लम्बी नलिकाओं से पानी पिलाया जाता था और जहाँ वे खड़े होते थे, वहाँ की सवा हाथ तक धरती से नीचे तक की मिट्टी को अपवित्र मानकर ,उसे खोदकर फ़ेकवा दिया जाता था, तथा वहाँ नई मिट्टी भर दी जाती थी ।
उन्हें खाँसने पर मुँह में छोटी कुल्हड़ियाँ बाँधने के लिए विवश क्या जाता था । इस तरह अनेक कुटिल व मानवता को शर्मसार कर देनेवाली परिस्थितियों के बीच, दलितों , पिछड़ों का मुक्तिदाता बनकर अंबेडकर साहेब जन्म लिये , मानवता का यह हितैषी संविधान निर्माता अंतिम सांस तक समाज के सबसे निचले पायदान पर पड़े लोगों के उत्थान के लिए लगे रहे । उनका मानना था के शरीर के जब तक सभी अंग स्वस्थ नहीं रहेंगे, तब तक शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा ; ठीक उसी तरह देश का जब तक हर व्यक्ति और गाँव समृद्ध नहीं होगा , हमारा देश समृद्ध नहीं होगा ।
पुराण तथा धर्मिक ग्रन्थों के प्रति उनके मन में कोई श्रद्धा नहीं रह गई थी । बिल्ली, कुत्ते की तरह दलित के साथ भेदभाव किये जाने की बात उन्होंने लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भी कही । 1947 में जब वे भारतीय संविधान प्रारूप समितिके अध्यक्ष चुने गये, तब उन्होंने कानूनों में और सुधार लाया, वे सामाजिक विषमता का पग-पग पर सामना करते रहे , मगर कभी झुके नहीं । यही कारण है कि उन्हें भारत का आधुनिक मनु कहा जाता है । उन्होंने अपने अंतिम सम्बोधन में पुणा पैक्ट के बाद गाँधीजी से कहा था, मैं दुर्भाग्य से हिंदू अछूत होकर जन्मा हूँ, लेकिन हिन्दू होकर मरूँगा नहीं ।
डॉ० अंबेडकर ने केवल दलित नहीं, सवर्ण महिलाओं से भी कहा---’ अपनी बेटियों की शादी कम उम्र में न दें, उनको शिक्षित कर अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दें तथा पुरुषों से कहा---महिलाओं को परिवार में बराबरी का दर्जा दें, उन्हें घर की दासी नहीं, दोस्त समझें ’। उनकी दशा सुधारने के लिए बाबा साहेब ऐसा कानून बनाना चाहते थे, जो विशुद्ध रूप से सामाजिक , कानूनी स्थिति सुधारने में संजीवनी बूटी की तरह काम करे । इसके लिए सौ फ़ी सदी औरतों के हक में हिंदू कोड विल संसद में पेश किया , लेकिन कट्टरपंथियों द्वारा इसका घोर विरोध सहना पड़ा । उनके घर पत्थर फ़ेंके गये, संसद में वहिष्कार हुआ । इसके बाद यह कोड-विल पड़ा रह गया । आखिर में जब यह विल संसद में पास नहीं हो सका, तब उन्होंने विरोध स्वरूप संसद से त्याग-पत्र दे दिया । डॉ० अंबेडकर , 1945 से ही मधुमेह से पीड़ित थे । वे इस बीमारी के दौरान बहुत कमजोर हो गये , आँखों से दिखाई भी कम पड़ने लगी थी । धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य बदतर होता गया, और 6 दिसम्वर 1956 को वे इस दुनिया को सदा के लिए छोड़ दिये । अंबेडकर के मृत्युपरांत उनके परिवार में उनकी दूसरी पत्नी डॉ० सविता अंबेडकर बची थी ,जो जन्म से ब्राह्मणी थी । उनकी मृत्यु 2002 में हुई । आजकल उनका पौत्र प्रकाश यशवंत अंबेडकर भारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व कर रहे हैं । डॉ० अंबेडकर को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ’भारत रत्न” से सम्मानित किया गया । कई सार्वजनिक संस्थानों का नाम उनके सम्मान में, उनके नाम पर रखा गया जैसे--- मुजफ़्फ़रपुर में वी० आर० अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, डॉ० वी० आर० अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा नागपुर, डॉ० अंबेडकर मुक्त विश्वविद्यालय आंध्रा इत्यादि । बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का भारत के विकास में जितना योगदान रहा, शायद ही किसी और राजनेता का रहा हो । एक अर्थशास्त्री , समाजशास्त्री, शिक्षाविद और कानून के जानकार के तौर पर उन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी थी । देश उनके योगदान को लेकर आज भी जागरूक है । डॉ० अंबेडकर संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे । उन पर भारत के संविधान बनाने की जिम्मेदारी थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया । उन्होंने ऐसे संविधान की रचना की, जिसकी नजरों में सभी नागरिक एक समान हों, धर्म निपेक्ष हों ,और जिस पर देश के सभी नागरिक विश्वास करें । इस तरह बाबा ने आजाद भारत के डी० एन० ए० की रचना की । वे अनंत संघर्ष की बागडोर नए युग के कर्णधारों के हवाले कर महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए । 7 दिसम्वर 1956 को बौद्ध शैली के अनुसार उनका अंतिम संस्कार, मुम्बई के दादर चौपाटी पर किया गया ,जिसमें लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग ल्या । उनके अंतिम संस्कार के समय उन्हें साक्षी रखकर उनके करीब 10,00000 अनुयायियों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली | इस महान आत्मा को कोटि-कोटि नमन !
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