बची रह जाती केवल निस्सीमता
दुनिया मनाती जब , होली का त्योहार
देख , मेरा दिल रोता , जार - जार
प्राणपखेरू , तन पिंजड़ को तोड़
निकल उड़ भाग जाना चाहता
नयन निस्सीमता ,की विजन छाया में
उसकी जल रही चिता,कर उठती चित्कार
जो शशि रेखा सी मेरी पलकों की
छाया में, पल –पलकर बड़ी हो रही थी
जिसके रूप - रंग पर आत्म- समर्पण
करती थी शोभा, जिसके प्रीति- आनंद
के द्रवों से भरा रहता था जीवन नद मेरा
जिसे देख जीवन का सुख -दुख
गीतों में बंधकर झंकृत होता था
जो अमर वेली सी मेरे प्राण-मन को
अपनी साँसों से बाँधे रखती थी
जिससे मेरा दोनों कूल रहता था हरा
जो कुसुम वैभव में लता समान
मेरी छाती से लिपटकर सोती थी
जिसकी किलकारी को सुनकर
मिट जाती थी,नीलिमा की जड़ता
जिसका सुंदरमुख, प्राची मुकुर में
नक्षत्र सी अपनी आभा फ़ैलाये
निर्विकार आज भी है हँसता
जिसके संग , मेरी ममता ऐसी रंगी
अश्रु से जितना धोती,उतना ही निखरता
जो कुटुम्ब बन मेरे घर रहने आई थी
और जाते-जाते दे गई,उम्र भर की नीरवता
जिसे देख नियति वहीं अपना घर बना ली
दुख पीड़ा का रथ , अब वहीं से निकलता
जब शिथिल आह से खींच उसे
अपनी गोदी में उठाकर पूछती हूँ मैं
जल रही बड़वाग्नि बीच, मेरे प्राण में
आकर, कब भरोगीतुम शीतलता
तब आकाश तरंग सा छाया-पथ में
छिप जाती,रह जाती केवल निस्सीमता
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