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Dr. Srimati Tara Singh
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बागवां की बेरूखी

 

बागवां की बेरूखी


               छोटी-छोटी पहाडियों से घिरा निमका गाँव, और गाँव के बीचो -बीच नदी का रूप लेकर बहता ,पहाडियों की तलहटी से कल-कलकर निकलता , कलनाद करता पानी,  सदियों से गाँव के लोगों की प्यास बुझाता आ रहा है | लहलहाते खेत, खिला-खिलाते बच्चे , सब के सब इस नदी की देन है , वरना  यहाँ के लोग इतने सुखी-सम्पन्न नहीं होते | यही कारण है कि , गाँव वाले इस नदी को भगवान का दर्जा देकर इसकी पूजा करते हैं | हर चतुर्मासी को यहाँ मेला लगता है | बड़ा ही रमणीय जगह है यह गाँव ; नदी तट के दोनों किनारों को जकड़े ,खड़े, रंग-विरंगे खुशबूदार जंगली फूलों की कतारें , गाँव को अपने सौरभ से चौबीसों घंटे नहलाती रहती हैं | शाम के बख्त तो यहाँ का दृश्य देखते बनता है , जब संध्या, अपना रंगीला पट, पहाड़ियों पर फैला देती है , और ऊपर आकाश में विहंग पंक्तियाँ बाँधकर कलरव करते अपने घोसले को लौट रहे होते हैं , तब उनके कोमल परों की लहर के झोकेदार समीर से, नदी के पानी में तरंगें उत्पन्न होती हैं , जिससे दोनों किनारे खड़े खुशबूदार फूल, गाँव पर और अधिक सौरभ लुटाते हैं | मगर , जब रात की काली चादर , इनको पूरी तरह ढक लेती है ; दिन का यह लुभावना दृश्य तब बड़ा भयावह रूप ले लेती है | ये सभी काले दैत्य समान खड़े दिखाई पड़ते हैं , मानो गाँव को जब कभी निगल लेंगे; ज्यों पृथ्वी की तरह धैर्यवान ‘मालती’ को निर्मम नियति निगल गई  | जब तक जीवित रही , उसका जीवन दीप, ऊपर की  ओर जाने के लिए तड़फडाता रहा | कारण, उसके अपनों की ठोकरें उसके शांति-संपन्न ह्रदय को विक्षिप्त बना दिया था | उसके मानसिक विप्लवों में किसी ने उसकी सहायता नहीं की | उसकी शारीरिक चेतना , मानसिक अनुभूति से मिलकर जब भी उत्तेजित हुई ,उसने अपने ह्रदय-द्रव्य को आँखों की निर्झरिणी बनाकर धीरे-धीरे बहा दिया |

              रात के अँधेरे में जब भी उसकी आँखें कुछ ढूढती थी, तब उसे घर के पिछवाड़े के नदी-जल में भसता हुआ, अपना ही प्रतिबिंब दिखाई देता था , जिसे देख वह डर जाती थी | उसकी उखड़ी -उखड़ी मनोस्थिति को समझने की किसी ने कभी कोशिश नहीं किया, किसी ने नहीं सोचा , उसे पेट भर अनाज के सिवा और भी कुछ चाहिए | वह एक गृहस्थ लड़की थी, मगर खुद उसके जन्मदाता ने उसकी गृहस्थी को अपने सुख की खातिर उजाड़ दिया | शादी के बाद उसके माता-पिता , उसे पति के घर, साथ जाने नहीं दिये | अपने ही घर   यह कहकर रख लिये, कि हम पति-पत्नी ,दोनों अकेले हैं , इसे कुछ दिन हमारे साथ रहने दीजिये | इसका अचानक दूर जाना , हमलोग सह नहीं सकेंगे |

मगर मालती को अपने माँ-बाप का यह विचार पसंद नहीं आया | वह चाहती थी कि पति के साथ रहे | अपनी कोठरी में बैठी ,वह अपनी किस्मत को रोती थी, और ईश्वर से विनय करती थी कि उसके प्राण निकल जाये | एक अपराधी की तरह सोचती थी --- ‘क्या ऐसी ही शादी के लिए मैं इतने दिनों से प्रतीक्षा करती आ रही थी ,कि जीवन की अभिलाषाएँ, मंडप के नीचे हवन कुंद में जलकर भस्म हो जाये | मालती दिन भर घर के काम में लगी रहती थी, थोड़ा -बहुत समय निकलता भी था ,तो माँ (सुनयना) के कराहने की आवाज सुनकर मालती ,एक नव -दीक्षिता , धर्मपरायण मनुष्य की तरह दौड़ती हुई , माँ के पास पहुँच जाती थी ,जाकर पूछती थी --- माँ तुमको क्या हुआ, तुम क्यों कराह रही हो ? सुनयना (मालती की माँ) , अपनी बातों में मिश्री घोलकर, मगर बड़ी ही कठोरता से कहती थी --- ‘मालती’ बेटा ! निगोड़ा घुटने का यह रोग अब साथ ही जायगा | जा तू ,जाकर  सो जा, रात के दश बज चुके हैं ; सुबह तुम्हारे पिताजी को शहर जाना है, उनका खाना-टिफिन भी जल्दी चाहिए | तब मालती, बड़ी ही संयमित हो उत्तर में कहती थी---- माँ, तुमको कराहती छोड़ भला मैं कैसे सो सकती हूँ ?  तुम चौबीसो घंटे दर्द से कराहती रहती हो, क्यों नहीं डॉक्टर दिखा लेती हो | हो सकता है , दवा से ठीक हो जाय , मालिश करने से तो जाने से रहा, तब सुनयना, मालती की आत्मा को भेदने के लिए कहती थी --- बेटी ! कभी तुझे गोद में उठाकर इसी पैर पर , दो मील दूर तुझे स्कूल छोड़ने मैं जाया करती थी | सदा से यह पैर ऐसा नहीं था , यह तो बीते दश सालों से ऐसा हुआ है | सुनकर, माँ के प्रति मालती का प्यार और बढ़ जाता था | उसके अंग-अंग में वात्सल्य फूट पड़ता था ; ऐसे पुलक उठता था, कि वह माँ के चरणों को अपने माथे से लगाकर कहती थी---‘माँ , तुम बुरा मान गई ? माँ ! मेरे सीने में जो ये साँसें चल रही हैं , यह तुम्हारा ही तो दिया है | मेरे इन साँसों पर तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा अधिकार है | उत्तर में सुनयना कहती थी ---- बेटा ! मैं भी तो आज दश वर्षों से तुम्हारी ही सेवा-सुश्रुषा की बदौलत जिन्दी हूँ  | तू जो ससुराल , अपने पति के साथ चली गई होती, तो मैं कब की मरी होती | माँ की मीठी बोली और अपनत्व पाकर मालती, अनुराग की मूर्ति बनी बैठी , माँ का पैर दबाती रहती, तब तक , जब तक कि सुनयना सो नहीं जाती थी | इस तरह वह मातृसेवा को अपने जीवन-तप का वरदान बना ली थी |

               संध्या ढल रही थी ,सूर्य भगवान किसी हारे सिपाही की तरह मस्तक झुकाये कोई आड़ खोज रहे थे | प्रकाश , अंधकार के पाँव तले कुचलता जा रहा था ; सहसा किसी के पैर  की आहट पाकर मालती चौंक गई, मुड़कर देखी, तो देखा --- दरवाजे पर , आम के पेड़ के ऊपर सिमटकर बैठे तोते पर कोई पत्थर मार रहा है और तोता हिलने का नाम नहीं ले रहा | वह दौड़कर पेड़ के पास गई, और उस पत्थर मारने वाले से बोली---- इस निरीह पक्षी को पत्थर क्यों मार रहे हैं आप, रात के बख्त ये कहाँ जायेंगे ? नीचे उतरते ही इन्हें कुत्ते-बिल्लियाँ मार डालेंगे , इन पर दया कीजिये  | सहस्त्रों बार ये शब्द मालती के मुख से निकले, पर मालती का धार्मिक भाव उस आदमी के अंत:करण को स्पर्श नहीं कर सका | जैसे बाजे से राग निकलता है, उसी प्रकार मालती के मुँह से यह बोल निकलता रहा | मगर सब निरर्थक , प्रभावशून्य, उस पर कोई असर नहीं पड़ा | वह आदमी पत्थर मारता ही रहा, तब तक, जब तक कि तोता, डाली छोड़कर उड़ नहीं गया | यह सब देखकर मालती की आँखें डबडबा आईं | यूँ तो ऋषि-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी मालती में कूट-कूटकर भरे हुए थे, पर इन्हीं गुणों के चलते लोग उसे बेवकूफ भी समझते थे | कुछ लोग कहते थे, यह लड़की अर्ध-पागल है, ससुराल न जाकर माँ-बाप के घर रहती है, पर कुछ लोग कहते थे ,इसमें मालती का अशिक्षित होना सबसे बड़ा कारण है, जिसके कारण वह अपने स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धांतों की अवहेलना कर चुपचाप सजीवता विहीन जीव की तरह जिंदी रहती है | पिता जरूरत से ज्यादा तुनुक-मिजाजी थे | उनका कहना था---- अपना-अपना दृष्टिकोण है, पति के पीछे-पीछे पालतू जीव बनकर चलना, यह भी कोई जिंदगी है, हमारे पास  है, तो आजाद है | इसका बच्चा भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है, वहाँ उस चंठ के पास जाकर क्या करेगी , जिसे उठने-बैठने तक का अक्ल नहीं है | लेकिन वे भूल जाते थे कि , औरत का ह्रदय फूल से नाजुक होता है, वह अपने भावों को व्यक्त करने के लिए साहस नहीं जुटा सकती | वह यह नहीं बता सकती कि कौन सी कमी का काँटा, उसके ह्रदय को घायल कर रहा है | मालती भी , गुमानी घरवालों की बातें सुनकर, पति से द्वेष करने लगी थी | 

              एक दिन तालाब में स्नान करते , मालती ने माँ, सुनयना से कहा ---- माँ ,मैं दुबारा माँ बनने जा रही हूँ | यह सुनते ही सुनयना का मुँह सूख गया  | वह चकरा गई, लेकिन वह बड़ी ही वाक्य- निपुणता के साथ कही---मालती ! तुमको कितनी बार मैं चेता चुकी हूँ कि दूसरा बच्चा तुम्हारे लिए प्राणघातक होगा , लेकिन तुमने मेरी बात का रत्ती भर अहमियत नहीं दिया |  

मालती आँखें नीची कर सहमती हुई फिर बोली--- मैं क्या करूँ ?

यह सुनकर सुनयना का धैर्य टूट गया, उसने आँखें तरेरकर कहा -----बेटा ! पति का कहा मानना, पत्नी का धर्म होता है , लेकिन यहाँ तो तुम धर्म के रूप में , पति के भय की उपासना कर रही हो | तुम इतना डरती क्यों हो, तुम उसकी क्रीतदासी तो नहीं हो ; तुम्हारे गृहिणीत्व  का अधिकार केवल तुम्हारा पदस्खलन ही छीन सकता है , जो कि कभी संभव नहीं है | 

मालती के पिता, तोडलमल ने भी पत्नी की बात का समर्थन करते हुए कहा--- क्यों मालती बेटा , तुम्हें भी यही मंजूर है ? 

सुनयना, खिसियाती हुई बोली--- अभी क्या बिगड़ा है, चाहे तो इसे नष्ट कर आजाद हो सकती है  ; दामाद जी को तो चाम प्यारा है , आदमी नहीं | इसको कुछ होने पर वह तो तुरंत अपना दूसरा ब्याह कर लेगा ; उसका क्या जायेगा , जायगा तो हमलोगों का !


मालती में धैर्य की कमी नहीं थी, अच्छा -बुरा सब कुछ सुनते रहना, उसका स्वभाव बन चुका था | भला , ऐसी ज्ञान -मुरीदी बेटी , किस माँ-बाप को पसंद नहीं आयगा, इसलिए क्रोधित हो सुनयना बोली --- जो मर्जी करो | मेरे भाग्य में चैन से जीना नहीं लिखा है, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? फिर गंभीर भाव से बोली---आज मुझे समझ में आ रहा है , कि हमने तुझे अपने पास रखने का जो निर्णय लिया था, वह गलत था |

मालती झुंझलाकर बोली--- आपलोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं ; आपलोग अपनी-अपनी फ़िक्र कीजिये | मुझे छोड़ दीजिये ; अगर तकदीर में मरना ही लिखा होगा, तो मर जाऊँगी | मालती पहली बार अपनी कामनायें, भविष्य की ज्वाला में झुलसती देख, काँप उठी, और भीरुता का कच्चा धागा जो उसके मन-दिमाग को जकड़कर बाँध रखा था , तोड़ दी | उसने माँ की ओर आग्नेय नेत्रों से देखती हुई बोली --- माँ ! तुम्हारे दूध का स्वाद तो मैं आज भी नहीं भूली हूँ , लेकिन मैं तुम्हारे ही जिस्म का हिस्सा हूँ , यह तुम भूल गई | 

सुनयना --- मालती के अश्रु -सिंचित गालों को अपने दोनों हाथों में लेती हुई कही --- मालती , मैंने तो बस इतना ही कहा न कि ईश्वर को , दूसरे सन्तान देने की इतनी जल्दी क्या थी ? तुमने तो उससे कभी प्रार्थना भी तो नहीं की थी | खैर चलो छोड़ो, जो होना है, होगा | ऐसे भी, कोई भी वृक्ष , जल और प्रकाश से बढ़ता है , पवन के प्रबल झोंके से सुदृढ़ होता है , मजबूत होता है | इसी तरह साहस और हिम्मत का विकास भी, दुःख के आहतों से होता है | मैं जानती हूँ , इस संसार में सबसे बड़ा अधिकार सेवा, त्याग से ही मिलता है | तुम्हारा आदर्श कभी विलास नहीं रहा | मगर यह भी सही है कि आमोद -प्रमोद को होम कर देने से , वैवाहिक जिंदगी नहीं चल सकती | वंश को आगे ले जाने के लिए , वंश का उत्तराधिकारी देना भी एक सेवाव्रत ही है , और यही व्रत वह सीमेंट है, जो दम्पति को जीवन-पर्यंत , प्रेम और साहचर्य में जोड़े रखता है | जिस पर बड़े-बड़े आघातों का कोई असर नहीं होता , जहाँ सेवाव्रत की कमी है, वहीँ विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है | 

मालती, माँ की बात सुनकर उत्तेजित हो बोली --- अगर मर्द नालायक है , तब ? 

बात-पटुता में प्रवीण सुनयना --- औरत जीतनी क्षमाशील होती है , बदले में पति से उसे उतना ही आदर मिलता है | तुमसे उसे जितनी भक्ति है , उसके बल पर तुम सरलता से उसे सीधा कर सकती हो | पर अभी वह सब, तुमको कुछ नहीं सोचना है | मैं हूँ न , फिर तुम्हारे पिता भी तो हैं , कुछ नहीं होगा, सब ठीक हो जायेगा |

मालती, यह सोच-सोचकर मरी जा रही थी कि दुनिया में मेरे सिवा कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा , जो इस दशा में भी ज़िंदा रहा होगा | मालती ---अब तक जिस संदेह की आग में भस्म हो रही थी , अब शतगुण वेग से धधकने लगी | कर्तव्य की वेदी पर , वह अपनी सारी कामनाएँ होम कर चुकी थी | ह्रदय रो रहा था, लेकिन मुख पर हँसी का रंग लिये खड़ी | सोचती रही, अब तक सारी चिंताएँ मुझ तक थीं, मगर अब पति को भी बताना होगा कि अब मुझे यहाँ नहीं रहना | मालती दो महीने तक इसी उधेड़-बन में पड़ी रही,वह तय नहीं कर पा रही थी कि पति को बताना ठीक होगा, या गलत | उसे न खाना अच्छा लगता, न सोना | उस पर दिन भर घर का काम-काज , वह परेशान हो चुकी थी | तबीयत अब साथ नहीं दे रही थी | चक्कर खाकर बैठ जाना, आम बात हो चुकी थी | एकदिन माँ से बोली ---माँ , तुम्हारे दामाद का भेजा इस महीने का पैसा तो आ चुका होगा ? सुनयना अचंभित हो बोली --- हाँ , मगर क्या बात है  ?

मालती --- मुझे कुछ पैसे चाहिए , सोचती हूँ डॉक्टर दिखा लूँ | पैसे की बात सुनते ही सुनयना भड़क गई , चिल्लाकर बोली --- तुम्हारे पति उतने ही पैसे भेजे हैं , जितना तुम्हारे गर्भवती होने से पहले भेजा करते थे | सभी पैसे खर्च हो चुके हैं, वरनामैं ना नहीं करती | तुम एक काम करो, फोनकर कुछ पैसे मँगवा लो | 

        मालती समझ गई ---आज तक मेरे माता-पिता , मुझे अपने पास रखने के लिए क्यों इतने परेशान थे , अब मुझे अपने मान-सम्मान के लिए न सही , अपनी आत्मरक्षा के लिए इस घर को छोड़ना होगा | 


       मालती घर तो नहीं छोड़ सकी , पैसे के अभाव में , दवाई के बिना दुनिया छोड़ दी |






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