बागवां की बेरूखी
छोटी-छोटी पहाडियों से घिरा निमका गाँव, और गाँव के बीचो -बीच नदी का रूप लेकर बहता ,पहाडियों की तलहटी से कल-कलकर निकलता , कलनाद करता पानी, सदियों से गाँव के लोगों की प्यास बुझाता आ रहा है | लहलहाते खेत, खिला-खिलाते बच्चे , सब के सब इस नदी की देन है , वरना यहाँ के लोग इतने सुखी-सम्पन्न नहीं होते | यही कारण है कि , गाँव वाले इस नदी को भगवान का दर्जा देकर इसकी पूजा करते हैं | हर चतुर्मासी को यहाँ मेला लगता है | बड़ा ही रमणीय जगह है यह गाँव ; नदी तट के दोनों किनारों को जकड़े ,खड़े, रंग-विरंगे खुशबूदार जंगली फूलों की कतारें , गाँव को अपने सौरभ से चौबीसों घंटे नहलाती रहती हैं | शाम के बख्त तो यहाँ का दृश्य देखते बनता है , जब संध्या, अपना रंगीला पट, पहाड़ियों पर फैला देती है , और ऊपर आकाश में विहंग पंक्तियाँ बाँधकर कलरव करते अपने घोसले को लौट रहे होते हैं , तब उनके कोमल परों की लहर के झोकेदार समीर से, नदी के पानी में तरंगें उत्पन्न होती हैं , जिससे दोनों किनारे खड़े खुशबूदार फूल, गाँव पर और अधिक सौरभ लुटाते हैं | मगर , जब रात की काली चादर , इनको पूरी तरह ढक लेती है ; दिन का यह लुभावना दृश्य तब बड़ा भयावह रूप ले लेती है | ये सभी काले दैत्य समान खड़े दिखाई पड़ते हैं , मानो गाँव को जब कभी निगल लेंगे; ज्यों पृथ्वी की तरह धैर्यवान ‘मालती’ को निर्मम नियति निगल गई | जब तक जीवित रही , उसका जीवन दीप, ऊपर की ओर जाने के लिए तड़फडाता रहा | कारण, उसके अपनों की ठोकरें उसके शांति-संपन्न ह्रदय को विक्षिप्त बना दिया था | उसके मानसिक
विप्लवों में किसी ने उसकी सहायता नहीं की | उसकी शारीरिक चेतना , मानसिक अनुभूति से मिलकर जब भी उत्तेजित हुई ,उसने अपने ह्रदय-द्रव्य को आँखों की निर्झरिणी बनाकर धीरे-धीरे बहा दिया |
रात के अँधेरे में जब भी उसकी आँखें कुछ ढूढती थी, तब उसे घर के पिछवाड़े के नदी-जल में भसता हुआ, अपना ही प्रतिबिंब दिखाई देता था , जिसे देख वह डर जाती थी | उसकी उखड़ी -उखड़ी मनोस्थिति को समझने की किसी ने कभी कोशिश नहीं किया, किसी ने नहीं सोचा , उसे पेट भर अनाज के सिवा और भी कुछ चाहिए | वह एक गृहस्थ लड़की थी, मगर खुद उसके जन्मदाता ने उसकी गृहस्थी को अपने सुख की खातिर उजाड़ दिया | शादी के बाद उसके माता-पिता , उसे पति के घर, साथ जाने नहीं दिये | अपने ही घर यह कहकर रख लिये, कि हम पति-पत्नी ,दोनों अकेले हैं , इसे कुछ दिन हमारे साथ रहने दीजिये | इसका अचानक दूर जाना , हमलोग सह नहीं सकेंगे |
मगर मालती को अपने माँ-बाप का यह विचार पसंद नहीं आया | वह चाहती थी कि पति के साथ रहे | अपनी कोठरी में बैठी ,वह अपनी किस्मत को रोती थी, और ईश्वर से विनय करती थी कि उसके प्राण निकल जाये | एक अपराधी की तरह सोचती थी --- ‘क्या ऐसी ही शादी के लिए मैं इतने दिनों से प्रतीक्षा करती आ रही थी ,कि जीवन की अभिलाषाएँ, मंडप के नीचे हवन कुंद में जलकर भस्म हो जाये | मालती दिन भर घर के काम में लगी रहती थी, थोड़ा -बहुत समय निकलता भी था ,तो माँ (सुनयना) के कराहने की आवाज सुनकर मालती ,एक नव -दीक्षिता , धर्मपरायण मनुष्य की तरह दौड़ती हुई , माँ के पास पहुँच जाती थी ,जाकर पूछती थी --- माँ तुमको क्या हुआ, तुम क्यों कराह रही हो ? सुनयना (मालती की माँ) , अपनी बातों में मिश्री घोलकर, मगर बड़ी ही कठोरता से कहती थी --- ‘मालती’ बेटा ! निगोड़ा घुटने का यह रोग अब साथ ही जायगा | जा तू ,जाकर सो जा, रात के दश बज चुके हैं ; सुबह तुम्हारे पिताजी को शहर जाना है, उनका खाना-टिफिन भी जल्दी चाहिए | तब मालती, बड़ी ही संयमित हो उत्तर में कहती थी---- माँ, तुमको कराहती छोड़ भला मैं कैसे सो सकती हूँ ? तुम चौबीसो घंटे दर्द से कराहती रहती हो, क्यों नहीं डॉक्टर दिखा लेती हो | हो सकता है , दवा से ठीक हो जाय , मालिश करने से तो जाने से रहा, तब सुनयना, मालती की आत्मा को भेदने के लिए कहती थी --- बेटी ! कभी तुझे गोद में उठाकर इसी पैर पर , दो मील दूर तुझे स्कूल छोड़ने मैं जाया करती थी | सदा से यह पैर ऐसा नहीं था , यह तो बीते दश सालों से ऐसा हुआ है | सुनकर, माँ के प्रति मालती का प्यार और बढ़ जाता था | उसके अंग-अंग में वात्सल्य फूट पड़ता था ; ऐसे पुलक उठता था, कि वह माँ के चरणों को अपने माथे से लगाकर कहती थी---‘माँ , तुम बुरा मान गई ? माँ ! मेरे सीने में जो ये साँसें चल रही हैं , यह तुम्हारा ही तो दिया है | मेरे इन साँसों पर तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा अधिकार है | उत्तर में सुनयना कहती थी ---- बेटा ! मैं भी तो आज दश वर्षों से तुम्हारी ही सेवा-सुश्रुषा की बदौलत जिन्दी हूँ | तू जो ससुराल , अपने पति के साथ चली गई होती, तो मैं कब की मरी होती | माँ की मीठी बोली और अपनत्व पाकर मालती, अनुराग की मूर्ति बनी बैठी , माँ का पैर दबाती रहती, तब तक , जब तक कि सुनयना सो नहीं जाती थी | इस तरह वह मातृसेवा को अपने जीवन-तप का वरदान बना ली थी |
संध्या ढल रही थी ,सूर्य भगवान किसी हारे सिपाही की तरह मस्तक झुकाये कोई आड़ खोज रहे थे | प्रकाश , अंधकार के पाँव तले कुचलता जा रहा था ; सहसा किसी के पैर की आहट पाकर मालती चौंक गई, मुड़कर देखी, तो देखा --- दरवाजे पर , आम के पेड़ के ऊपर सिमटकर बैठे तोते पर कोई पत्थर मार रहा है और तोता हिलने का नाम नहीं ले रहा | वह दौड़कर पेड़ के पास गई, और उस पत्थर मारने वाले से बोली---- इस निरीह पक्षी को पत्थर क्यों मार रहे हैं आप, रात के बख्त ये कहाँ जायेंगे ? नीचे उतरते ही इन्हें कुत्ते-बिल्लियाँ मार डालेंगे , इन पर दया कीजिये | सहस्त्रों बार ये शब्द मालती के मुख से निकले, पर मालती का धार्मिक भाव उस आदमी के अंत:करण को स्पर्श नहीं कर सका | जैसे बाजे से राग निकलता है, उसी प्रकार मालती के मुँह से यह बोल निकलता रहा | मगर सब निरर्थक , प्रभावशून्य, उस पर कोई असर नहीं पड़ा | वह आदमी पत्थर मारता ही रहा, तब तक, जब तक कि तोता, डाली छोड़कर उड़ नहीं गया | यह सब देखकर मालती की आँखें डबडबा आईं | यूँ तो ऋषि-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी मालती में कूट-कूटकर भरे हुए थे, पर इन्हीं गुणों के चलते लोग उसे बेवकूफ भी समझते थे | कुछ लोग कहते थे, यह लड़की अर्ध-पागल है, ससुराल न जाकर माँ-बाप के घर रहती है, पर कुछ लोग कहते थे ,इसमें मालती का अशिक्षित होना सबसे बड़ा कारण है, जिसके कारण वह अपने स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धांतों की अवहेलना कर चुपचाप सजीवता विहीन जीव की तरह जिंदी रहती है | पिता जरूरत से ज्यादा तुनुक-मिजाजी थे | उनका कहना था---- अपना-अपना दृष्टिकोण है, पति के पीछे-पीछे पालतू जीव बनकर चलना, यह भी कोई जिंदगी है, हमारे पास है,
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