Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बैलगाड़ी का पहिया

 

        

      बीस साल बाद भतीजे की शादी में, जब मैं छोटे बेटे के साथ अपने गाँव पहुँची तो लगा; यह गाँव तो मेरा है, मगर पता नहीं क्यों गाँव में रहने वाले लोग मेरे नहीं हैं। सब कुछ बदल चुका था । पुराने पेड़ या तो बाढ़ में उखड़ गये थे या फ़िर सूख गये थे । बागीचे के पेड़, सभी नये थे । जिन खेतों को सरसों के पीले- पीले फ़ूलों से सजे देख करती थी; उस जगह ईंट – गाढ़े के विशालकाय मकान खड़े थे । गाँव के छोड़ पर विधवा ’परन की वह झोपड़ी भी नहीं थी; जहाँ दूर से हाट – बाज़ार कर लौटने वाले पानी माँगकर पीया करते थे और कुछ देर उसके खटिये पर बैठकर क्लांति मिटाते थे । सब कहाँ विलुप्त हो गया ।

        सब कुछ बदला –बदला सा था ; कुछ भी पहले जैसा नहीं था । मेरी आँखें २० साल पहले वाला गाँव को न पाकर , भर आईं । जाने मुझे क्यों ऐसा लगा, मैं यहाँ क्यों आई ? गाँव तो मेरा है, लेकिन गाँव में रहने वाले लोग कोई मेरे नहीं हैं । वे कहाँ चले गये, अपना घर -बार छोड़कर । मन ही मन मैं चिंतित हो उठी, तभी अचानक मेरा अपना वह घर दिखा, जहाँ मैं अपना सुनहला बचपन एक – दो बच्चों के साथ नहीं, अपने –चचेरे मिलाकर लगभग पन्द्रह बच्चों के साथ बिताई थी । तब आँखों में फ़िर एक बार खुशियाँ लहर उठीं । दरवाजे पर पहुँची । वही पुराना कुआँ ; ज्यों का त्यों ठीक पहले की तरह मेरी राह देख रहा था ,जैसा २० साल पहले माँ –बाबूजी के रहते देखा करता था । भीतर आँगन में जब पहुँची; आँगन लोगों से भरा था । मेरी आँखें उनमें अपनों को ढूँढ़ने रही थी, मगर मेरे अपने वहाँ कोई नहीं मिले । बच्चे भी बहुत थे, मगर उनमें से एक भी मेरे साथ खेले हुए नहीं थे । आँखें जो देख्र रही थीं, दिल उसे मान नहीं रहा था । तभी मेरा बेटा,आँगन के कोने में जर्जर पड़े पहिये को दिखाते हुए, बोल उठा,’मम्मी ! वो देखो, बैलगाड़ी का पहिया । क्या नानाजी  के पास बैलगाड़ी भी हुआ करती था ।’ मैंने धीरे से , हाँ कहते हुए पहिये के करीब जाकरखड़ी हो गई  ( पता नहीं क्यों मुझे लगा कि कोई तो मेरे बचपन का पहचान वाला निकला । पहिये को बुत की तरह निहारती हुई मैं रो पड़ी । बेटे ने मेरी आँखों के अश्रु को पोछते हुए पूछा,’ इस पहिये में ऐसा क्या है मम्मी, जिसे देखकर आप रो पड़ीं ?’ मैं बड़ी मुश्किल से खुद को सँभालती हुई कही,’ बेटा ! यह पहिया , हमारे परिवार का एक सदस्य है । इसने हमारे माता –पिता, दादा- दादी का साथ एक –दो साल नहीं, सौ साल तक निभाया है । हमलोगों को शहर तक घुमाकर इसने लाया है । ये काठ के तो हैं; मगर बेजान नहीं हैं । देखो ! यह मुझसे बातें करता है । जानते हो, जब हमारा भरा-पूरा परिवार था; दादा-दादी,

 

 

 

चाचा-चाची, भाभी- भैया, माँ- पिताजी और सबो के ,कुल मिलाकर १० बच्चे थे । तब यही पहिया हमें माघी – पूर्णिमा का मेला नहलाने शहर ले जाता था । मेरे यहाँ, एक नौकर हुआ करता था । नाम था आलम , दादा- दादी का वफ़ादार सिपाही । एक पैर पर खड़ा रहने वाला  और हम सबों को दादा की तरह प्यार करने वाला । मकर संक्रान्ति का पर्व आने के एक सप्ताह पहले से ही गंगा स्नान  के लिए सुलतानगंज घाट ले जाने की तैयारी शुरू कर देता था । बैलों को नहवाता था, तेल लगाता था, सींगों को रंगता था और उनके ओढ़ने के लिए सुंदर फ़ूल छाप वाला चादर तैयार करता था । गले में लाल डोरी में घंटियाँ लटकाता था । हम सभी बच्चे उसके काम में शरीक तो नहीं होते थे; मगर उससे अलग भी नहीं रह पाते थे, ये सोचकर कि हमें शहर जाना है ।           

 

    मकर – संक्रान्ति के दिन आते ही सुबह से बैलों को खिलाने और बैलगाड़ी तैयार करने में आलम जुट जाता था । जब इस पहिय़े को बैलगाड़ी में पहना दिया जाता था; मानो लगता था, यह पहिया कह कह रहा हो, और कोई तैयारी बाकी नहीं है । बच्चो ! जल्दी चलो, देर हो रही है  । औरतों को बैठने के लिए  शीशेदार टटिया लगाया जाता था । जहाँ घर की औरतें जाकर बैठती थीं और अपनी इच्छानुसार उन शीशों में खुद को सँवारती भी थीं । ठीक शाम के चार बजे आलम गाड़ी हाँक देता था । माँ, दादी, सभी भीतर बैठती थीं । लेकिन हम बच्चों का कोई ठीक नहीं रहता था । हमलोग आलम के पास भी बैठ जाते थे । रात भर बैलगाड़ी चलती थी । इस बीच सबों को जगाये रखने के लिए आलम कभी चकवा- चकवी का गीत, कभी भोर गाता था। सुबह जब गंगा घाट गाड़ी पहुँचती थी; तब आलम हम सब बच्चों को बारी – बारी से उतारकर ले जाता था और गंगा – स्नान करवाकर दादी के पास पहुँचा देता था । जहाँ दादी सबों को पोछकर कपड़े पहनाती थी । जानते हो, यह पहिया, तब सब कुछ देख रहा होता था । मगर चुप रहता था । क्योंकि  कभी जब रास्ते में भारी बोझ से दबकर यह पहिया, कर – क्यूँ करता था , तो दादी इसपर बहुत गुस्सा करती थी । कहती थी,’ सौ बार तेल पिलाओ, लेकिन यह नि:मुँहा ’कर – क्यू करने से बाज नहीं आता; पता नहीं क्या चाहता है । जब माँ, दादी सभी स्नान कर लेती थीं, फ़िर पूजा- अर्चना के बाद,हम सभी बच्चे माँ – बाबूजी के साथ घूमने जाते थे और फ़िर गाड़ी में आकर बैठ जाते थे । घर लौटते वक्त रास्ते भर की बातें सुनता था , यह पहिया । मगर , वह दादी के डर से कल भी चुप था और आज भी चुप है ।

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