हाँ ! हमारी और आपकी बेटी, जिसके जनम तक को हम अशुभ मानते हैं । कहते हैं , निश्चय ही हमने कोई बुरा कर्म किया होगा, जो आज मेरे घर बेटी जनमी । अच्छे कर्मों का फ़ल होता, तो बेटा नहीं जनमता, जो जिंदगी भर का सहारा तो बनता ही, मरणोपरांत भी कंधे पर लादकर श्मशान तक पहुँचाता । बेटी, बेटी तो पराया धन होती । हमारा घर उसका घर नहीं है, शादी कर वह जिस घर में जायेगी, वही होगा उसका अपना घर । आश्चर्य होता है, शर्म आती है, कैसे एक माँ-बाप अपने ही सहोदर संतान को , पराया धन कहते हैं । क्या हार –मांस का बना मनुष्य कोई वस्तु हो सकता है , जो हम उसे ’पराया धन की उपाधि जनमते ही दे देते हैं । लेकिन बेटा के लिए हम ऐसी भाषा का व्यवहार नहीं करते । इतना ही नहीं, जब बेटी घर से विदा होकर ससुराल जाने लगती है, तब घर वाले कहते हैं,’ बेटी ! तुम जहाँ जा रही हो, आज से वही तुम्हारा घर है । हर हाल में वहीं जीना, वहीं मरना । जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, अर्थी भी वहीं से निकले, यही मेरा आशीर्वाद है और अगर किसी कारणवश वहाँ नहीं टिक सकी, तो नदी में डूब जाना, ट्रेन में कटकर मर जाना मगर हमारे दरवाजे पर लौटकर नहीं आना । क्योंकि कुल की बेटी मरकर भी अपने माँ – बाप का सर उठाये रखती है , झुकने नहीं देती है । तुम्हारे लौटकर आने से मेरा बॆटा समाज में कैसे जीयेगा; लोगों के आगे उसका सर झुक जायेगा । यह सब सुनकर एक बेटी की क्या मानसिक स्थिति रहती होगी ? क्या आपने कभी अन्दाजा लगाया , जिस बेटे के लिए एक बेटी को आपने सब कुछ सुनाया ।
लेकिन जब वही बेटा, चन्द्रमुखी को पाकर, माँ –बाप से नफ़रत करने लगता है, बात –बात पर पति – पत्नी, दोनों मिलकर झगड़ता है, तब हमें उस बेटी की याद आती है जिसको घर से विदा करने के पहले ही हम आपनी पदवी तक उससे छीन लेते हैं । उससे कहते हैं, ’ अब से तुमको ससुराल वाले के नाम के साथ जीना होगा । ’ मगर गलती का एहसास आदमी को बुढापे में होता है , जब चलने – फ़िरने की शक्ति नहीं रहती है । तब जिसे हम बुढापे की लाठी समझते हैं । वह लाठी बनना तो दूर, लाठी से डराना शुरू कर देते हैं । तब हमें बेटी की याद आती है । इन्हीं बदनसीब माँ – बाप में, गुप्ता जी भी एक हैं जो अपनी जवानी में किये अपराध को हर किसी के गले से लगकर सुनाते हैं और रोते हैं । कहते हैं, एक बार मैं अपनी पत्नी और बच्चों के ( एक बेटा और एक बेटी )साथ ससुराल से अपने गाँव वापस लौट रहा था । भादो का महीना था । छोटे – छोटे नाले भी नदियों में तवदिल होकर उफ़न रहे थे । और हमें नाले को पारकर उस पार गाँव जाना था । लेकिन पानी का बहाव इतना तेज था कि खाली हाथ भी पार करने की हिम्मत नहीं हो रही थी । मैंने पत्नी से कहा,’ भाग्यवान ! हम दो हैं और हमारे पास सामान तीन । नदी जिस तरह उफ़न रही है , हम दोनों अधिक से अधिक एक –एक सामान लेकर पार कर सकते हैं । ऐसे में हमें क्या करना चाहिए ? अगर हम पार नहीं करते हैं तो रात होने ही वाली है, इस वीरान जगह में कोई हिंसक पशु आकर हमलोगों को खा जायेगा । पत्नी सुनकर काँप उठी और तुरंत संभलते हुए बोली.’ हम अपने बच्चे को तो फ़ेंक नहीं सकते; इस गहने की गठरी को फ़ेंक दो । ’ मैंने कहा, ’ यह गहना हमारे जीने का संबल है, इसे अगर हम फ़ेंक देते हैं तो जीवन जीयेंगे कैसे ? ऐसे भी हम उस पर जाकर पैसे के बिना दाने- दाने को तरसकर मरेंगे ही । तो क्यों न हम इसी पार हम बैठकर नदी के शांत होने का इन्त्जार करें । रात अगर जिंदा रह सके, तो सुबह चले जायेंगे ।’ पत्नी निराश होकर बोली,’ अब तुम्हीं सोचो, हमें क्या करना चाहिए ? तुम जैसा कहोगे, वैसा ही होगा ’ मैंने कहा.’ मुझे माफ़ करना । मैं जो कहने जा रहा हूँ, बड़ा ही दर्द भराऔर कठोर है, मगर इसके सिवा दूसरा कोई उपाय भी नहीं है । गहने हम फ़ेंक नहीं सकते ,बेटा को छोड़न संभव नहीं, क्योंकि बेटा हमारे बुढापे की लाठी है, इसके नहीं रहने से हमारे बुढ़ापे को कौन संभालेगा ? और अगर हम गहने फ़ेंक देते हैं तो धन बिना हमारा बेटा जीवन कैसे जीयेगा ? इसलिए अपने दिल पर पत्थर रखकर हमें बेटी को छोड़ना होगा । ऐसे भी बेटी, पराई धन होती है; आज नहीं तो कल, अपने घर से हमें इसे विदा करना ही होगा । इसका मोह त्यागना ही होगा । इसलिए इस मोह को अगर आज हम त्यागते हैं, तो हमारा जीवन सुखमय हो जायेगा । बाद दोनों पति – पत्नी ने मिलकर बेटी को उसी नदी में फ़ेंक दिया और गहने और बेटे को लेकर नदी के इस पार आ गये । बोलते – बोलते गुप्ताजी जमीन पर बैठकर बच्चों की तरह बिफ़र – बिफ़रकर रोने लगे । मैने कहा,’ गुप्ताजी ! अब रोने से क्या होगा ? आपके रोने से वह लौटकर नहीं आयेगी । ’ गुप्ताजी रोते हुए बोले,’ अगर उस रोज मैं बेटी की जगह बेटे को फ़ेंका होता तो आज यह दुर्दिन देखने को नहीं मिलता । बेटी बड़ी दयालु होती है । देखते नहीं हैं, पाण्डेय़ जी को बेटा नही है, बेटी है । बेटी उनका कितना ख्याल रखती है । वे कितना खुश रहते हैं ? आज मैं सोचता हूँ,उस रोज मैं अपनी खुशियों को नदी में बहाकर , दुख को गले लगाकर घर क्यों ले आया ? ’ईश्वर ! मुझे माफ़ करना और मुझे इतना दुख देना कि कोई दूसरा बाप मेरी तरह बेटी के लिए कसाई न बने; बनने के पहले तुमसे डरे ।’
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