भगीरथ
गंगा के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं, इनमें राजा सगर की कथा और मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीनों की बूँदों से गंगा की जन्म-कथा, तथा अन्य कथाएँ भी हैं । महाभारत के अनुसार भगीरथ ,अंशुमान के पौत्र तथा दिलीप के पुत्र थे । उन्होंने सौ अश्वमेध यग्य करवाये; उनके महान यग्य में इन्द्र सोमपान कर मदमस्त हो गये थे । भगीरथ ने गंगाघाट के दोनों किनारों को सोने से बँधवाये । उन्होंने रथ में बैठी अनेक सुंदर कन्याएँ एवं धन-धान्य ब्राह्मणों को दी थी । गंगा, राजा भगीरथ के संकल्प-कालिक जलप्रवाह से आक्रांत होकर राजा की गोद में जा बैठी । इसलिए गंगा भगीरथी कहलाई और वही गंगा राजा भगीरथ के जंघा पर अर्थात उनके उरु पर बैठने के कारण उर्वशी नाम से विख्यात हुई ।
गंगा और राजा शांतनु -------- भरतवंश में राजा शांतनु नामक एक प्रतापी राजा थे । एक दिन गंगा के तट पर, आखेट खेलते समय उन्हें गंगा दिखाई दी । शान्तनु उससे विवाह करना चाहे, गंगा भी इस शर्त पर शादी के लिए तैयार हो गई ,कि वो जो कुछ करेंगी,उस विषय में राजा कोई प्रश्न नहीं करेंगे । शान्तनु से गंगा को सात पुत्र हुए, लेकिन गंगा ने सबों को नदी में फ़ेंकते चली गई । राजा शर्त के अनुसार इस विषय में गंगा से कोई प्रश्न नहीं किये, मगर आठवीं संतान को नदी में बहाने के विरुद्ध आपत्ति की । इस प्रकार राजा का ,गंगा को दिया वचन टूट गया । गंगा अपना वैवाहिक सम्बंध विच्छेद कर अपने पुत्र के साथ यह कहकर स्वर्ग चली गई ,कि जब यह बड़ा हो जायगा, तब मैं इसे आपको लौटा दूँगी । एक और मानयता है, कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद , ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण धोये, और उस जल को अपने कमंडल में भर लिया । कथा का दूसरा सम्बंध भगवान शिव से है, जिन्होंने संगीत के दुरुपयोग से पीड़ित राग-रागिनी का उद्धार किया , जब भगवान शिव ने नारद मुनि, ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गया तब संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बाहर निकल आया, जिसे ब्रह्मा ने अपने कमंडल में भर लिये, जिससे गंगा का जन्म हुआ और ब्रह्मा के संरक्षण में गंगा स्वर्ग में रहने चली गई ।
बाल्मीकि रामायण के अनुसार गंगा के बारे में , ऋषि वि्श्वामित्र ने राम को जो गंगा-जन्म की कथा सुनाई, वह इस प्रकार है--- उन्होंने बताया--- राम! तुम्हारे अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा राज करते थे । उनकी दो रानियाँ थीं, मगर कोई संतान नहीं थे । पुत्रहीन राजा सगर ने रानी केशिनी, जो कि विदर्भ प्रांत के राजा की बेटी थी, उनसे शादी की । केशिनी रूपवती, धर्मपरायण और सत्यपरायण थी । सगर की दूसरी पत्नी सुमति थी, जो राजा अरिष्टनेमि की पुत्री थी । महाराजा ने अपनी दोनों रानियों के साथ तपस्या करके भृगु ऋषि को प्रसन्न कर उनसे अनेक पुत्रों की प्राप्ति का वर प्राप्त किया । मगर ऋषि ने वर प्रदान करते वक्त यह भी कहा, दोनों रानियों में से एक का केवल एक पुत्र होगा, जो वंश को बढ़ायेगा और दूसरी को साठ हजार पुत्र होंगे । कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती हैं, निर्णय कर लें । केशिनी ने वंश बढ़ाने वाले पुत्र की कामना की, और गरुड़ की भगिनी, सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की । कुछ काल बाद रानी केशिनी ने असमञ्ज नामक पुत्र को जन्म दिया और रानी सुमति के गर्भ से एक तबू निकला, जिसे फ़ोड़ने पर साठ हजार पुत्र निकले ।
कुछ वर्षों बाद सभी राजकुमार बड़े हो गये । सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज बड़ा ही दुराचारी निकला । इस दुराचारी पुत्र को सगर ने अपने राज्य से बाहर निकाल दिया , कारण उसे नगर के बच्चों को सरजू नदी में डुबो-डुबोकर मारना बहुत पसंद था । असमञ्ज को अंशुमान नामक एक पुत्र था, जो बड़ा ही सदाचारी और पराक्रमी था । एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यग्य का फ़ैसला लिया , इसके लिए उन्होंने हिमालय एवं विध्यांचल के बीच की हरीतिमा-युक्त भूमि पर एक विशाल राज्यमंडप का निर्माण करवाया । इस अश्वमेध यग्य के लिए श्यामकर्ण छोड़कर उसकी रक्षा के लिए अंशुमान को सेना के साथ पीछे-पीछे भेजा । यग्य की संभावित सफ़लता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण कर उस घोड़े को चुरा लिया । यह समाचार जब राजा के पास पहुँचा, वे क्रोधित हो, अपने साठ हजार पुत्रों को उसे खोज निकालने के लिए ( मरा या जिंदा) भेज दिया । उन्होंने कहा----’ आकाश, धरती और पाताल, जहाँ भी हो, उसे ढूँढ़ निकालो । पूरी पृथ्वी पर जब वह घोड़ा कहीं नहीं मिला; इस आशंका से कि कहीं घोड़े को तहखाने में छुपा रक्खा हो, सगर –पुत्रों ने पूरी पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया । ऐसा करने से भूमितल के असंख्य निवासी मारे जाने लगे ; परेशान होकर देवताओं ने ब्रह्मा से गुहार लगाई । ब्रह्मा ने कहा---- पृथ्वी की रक्षा का दायित्व कपिल ऋषि पर है, इसलिए उन्हें , इस नृशंस कृत्य को रोकने के लिए शीघ्र कुछ करना चाहिये । सगर –पुत्र घोड़े को खोजते-खोजते पाताल लोक पहुँचे, जहाँ उन्होंने देखा, कि कपिल मुनि तपस्या में लीन हैं, और घोड़ा उनके पास बँधा हुआ है । उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर अनेकों दुर्वचन कहे, मारने तक दौड़े । ऐसा करने से ऋषि की तपस्या भग्न हो गई । उन्होंने क्रुद्ध होकर जब आँखें खोलीं, तब उनकी क्रोधाग्नि में साठो हजार सगर-पुत्र वहीं भस्म हो गये । आगे विश्वामित्र ने कहा---- वर्षों तक अपने पुत्रों का कोई समाचार न पाकर सगर चिंतित होकर अपने तपस्वी-पुत्र अंशुमान को उन सबों को ढूँढ़ निकालने का आदेश दिया । अंशुमान , उन सबों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते अपने चाचाओं द्वारा बनाये मार्ग से पाताल लोक पहुँचे । वहाँ जाकर देखा, घोड़ा घास चर रहा है, और सगर-पुत्र वहीं भस्मीभूत होकर बिखड़े पड़े हैं । अंशुमान को काफ़ी क्षोभ हुआ, उसने तर्पण करने के लिए जलाशय की खोज की, किन्तु कहीं जलाशय नहीं मिला । तभी उसकी नजर अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी । उसने गरुड़जी से पूछा--- पितामह ! मैं अपने चाचाओं का तर्पण करना चाहता हूँ, समीप कोई सरोवर है, तो कृपाकर मुझे बताइये । साथ ही इनकी मृत्यु के विषय में अगर आपको कोई जानकारी है, तो वह भी बताने की कृपा कीजिए । गरुड़ ने प्रारम्भ से अंत तक का वृतान्त अंशुमान को बताया, कि किस प्रकार इन्द्र ने घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के पास लाकर बाँध गया था, और उसके चाचाओं ने कपिल मुनि को चोर समझकर कितना अपमान किया था , जिससे क्रोधित होकर मुनि ने सबों को अपनी आँख की अग्नि –ज्वाला से भस्म कर दिया । इसके बाद गरुड़ ने कहा--- एक अलौकिक शक्तिवाले दिव्य पुरुष द्वारा ये लोग भस्म किये गये हैं । इसलिए इनका उद्धार लौकिक जल से नहीं होगा; केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री, गंगा के जल से ही इनका उद्धार संभव है । इसलिए अभी तो तुम घोड़े को वापस ले जाओ, जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो । गरुड़ आदेशानुसार घोड़े के साथ अंशुमान अयोध्या लौट गये , और सारा वृतांत राजा सगर से बताया । राजा अपने पुत्रों के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे , लेकिन उन्हें कोई युक्ति नहीं सूझी ।
आगे ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम से बताया---- अंशुमान के एक पुत्र हुए, जो परम प्रतापी थे ; नाम था दिलीप । जब दिलीप वयस्क हुए , तब अंशुमान अपना राजपाट दिलीप को सौंपकर हिमालय की कंदराओं में जाकर , गंगा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगे । वर्षों तपस्या के बावजूद भी वे गंगा को प्रसन्न कर धरती पर नहीं ला सके ,और वे स्वर्ग सिधार गये । इधर राजा दिलीप के धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ जब बड़े हुए, वे भी अपने पिता की भाँति अपना राजपाट अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर स्वयं गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने लगे, पर असफ़ल रहे । भगीरथ प्रजावत्सल नरेश थे ,पर नि:संतान ; अत: राज्यभार मंत्रियों के हाथों सौंप ,गंगावतरण के लिए गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे । उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं ब्रह्मा, उनको दर्शन देकर पूछे--- माँगो, तुम्हें क्या चाहिये ?
भगीरथ ने ऋषि विश्वामित्र की कही बातों को बड़े ही करुणापूर्वक सुनाया । इस पर भगवान शंकर ने कहा--- ठीक है, तुम्हारी खातिर गंगा को मैं अपने मस्तक पर धारण करूँगा । इस बात की सूचना पाकर गंगा बहुत चिंतित हो उठी, वह सुरलोक का त्याग करना नहीं चाहती थी । इसलिए यह विचार कर कि मैं शिव जी को अपने प्रचंड वेग से बहाकर सुरलोक ले जाऊँगी । गंगा का यह अहंकार , महादेव से छुपा न रह सका । महादेव ने गंगा के प्रवल बहाव को कमजोर करने के लिए अपने जटाजूट में उलझा दिया । गंगा अपने समस्त प्रयासों के बावजूद भी महादेव की जटाओं से बाहर नहीं निकल सकी । गंगा को शिव की जटाओं में विलीन होता देख भगीरथ फ़िर से चिंतित हो उठे ; वे फ़िर शंकर जी की तपस्या में बैठ गये । भगीरथ की तपस्या से खुश होकर महादेव ने गंगा को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ दिया, जहाँ से गंगा सात धाराओं में बँट गई ---- तीन धाराएँ (१) हलादिनी (२) पावनी (३) नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुई; सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं तथा सतावी धारा , महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली । जिधर-जिधर भगीरथ जाते थे, गंगा उधर-उधर जाती थी ; स्थान-स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर , ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत में उपस्थित हो रहे थे । जो भी उस जल को स्पर्श करता था, भव बाधाओं से वह तत्क्षण मुक्त हो जाता था । चलते-चलते गंगा ऋषि जहनु के पास पहुँचे, ऋषि उस समय यग्य कर रहे थे । गंगा अपने सम्पूर्ण वेग से उनके यग्य की सामग्री को अपने साथ बहा ले जाने लगी ; यह देखकर ऋषि क्रुद्ध हो गये और उन्होंने गंगा का सारा जल पी लिया । इससे ऋषि-मुनि सभी चिंतित हो उठे, वे सभी गंगा को मुक्त कराने के लिए एक साथ जहनु ऋषि की स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर गंगाजी को उन्होंने अपने कानों से निकाल दिया, और गंगा को अपनी पुत्री मान लिया , तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगी
। इसके पश्चात गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे समुद्र तक पहुँच गई और वहाँ से सगर पुत्रों का उद्धार करने के लिए रसातल में चली गई । उनके जल के स्पर्ष से भस्मीभूत हुए सगर के पुत्रों ने निष्पाप होकर स्वर्ग की प्राप्ति की । उस दिन से गंगा के तीन नाम हुए:- त्रिपथा, जाह्नवी और भगीरथी । कपिल ऋषि के आश्रम पहुँचने के पश्चात ब्रह्माजी ,यह कहकर गंगा को वरदान दिये,’ तुम्हारे जल से जो मनुष्य स्नान करेगा या पान करेगा,वह सब प्रकार के दुखों से रहित होकर अंत में स्वर्ग को प्रस्थान करेगा, और जब तक यह धरती रहेगी, तुम्हारे नाम की कीर्ति कभी कम नहीं होगी ।’
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