भगवान महावीर ( हमारे जगत पिता )
काल – तमस व्यवधान को चीरकर
साँसों से गगन को तरंगितकर
सदाचार की शुभ्र आभा से मंडित होकर
मानवता के मेरु, मनुज बुद्धि को
मनुज हृदय से संसृत करने
भारत की भूमि पर ,नव अरूण-सा
अवतरित हुआ , एक आत्म महान
माता-पिता ने नाम रखा वर्द्धमान
देख धरा के भूतों की तमस क्षेत्र में
जीवन तृष्णा,पाण क्षुधा और मनोदाह
से क्षुब्ध,दग्ध मानव चित्कार कर रहा
रोग, शोक, मिथ्या, अट्टहास भर रहा
खिन्न धात्री, निज रस से ही पोषित
मानव शोणित कोपी रही
उनका हृदय सिंघासन डोल गया
स्वर्ग चेतना एक अविराम धारा में बहे
नव जीवन, मनुजता के सौन्दर्य पद्म में
फ़िर से विहँस उठे, जनों की यह धरणी
गरिमा, ग्यान, तप से स्वर्ग –घर बना रहे
सत्वों के हित, तजकर वैभव की सेज
धरा धूलि पर सोने,वन की ओर प्रस्थान किये
उन्होंने कहा घृणा, द्वेष, जाति, धर्म, वर्ग युद्ध
आन्दोलन, मनुज उर का संस्कार नहीं है
आँखें मूँदकर जो शील का गुण सिखलाता
वह व्यभिचारी है,उसे मनुजता से प्यार नहीं है
वह मनुज तन में पशु,रिक्त देह,नग्न आत्म है
वह नहीं चाहता, धरा से दुख- दैन्य मिटे
सहज राशि गुण सार ग्रहण कर, मानवता
स्थापित हो, यह लोक शुभ से प्रेरित रहे
नियति का यह गोलक,जो कर्मचक्र–सा घूम रहा
इसके पीछे कोलाहल , पीड़ा है घूम रही
इसमें दुख ही दुख है, दुख का पारावार नहीं है
जिसके कारण कल्याण भूमि यह लोक
मिथ्या , अतिचारी से भरा जा रहा
व्यापक , विशुद्ध विश्वासमयी प्रकृति से
धरा मनुज छला जा रहा,आकुलता बढ़ती जा रही
जड़–बंधन सा एक मोह,प्राणों को कसता जा रहा
चिर प्रशांत मंगल की आशा, मिटती जा रही
अनाचार फ़ैल रहा,धरा नरक बनी जा रही
मनुजों के देहों के मांसल रजसे
धरती की मिट्टी का नव निर्माण हो रहा
इसे स्वप्न के नव प्ररोहों से जगाना होगा
लोट रही जो घृणा,द्वेष हृदय खोह नागिन–सी
उसे खींचकर , बाहर लाकर दर्प भरे दृग में
रंजित अधर, शत रुंडमुंड हत दिखाना होगा
तभी युग मानस का पद्म जो खिला है
इस धरती पर, वह हरा –भरा रहेगा
गली कूच , वन वीथी नगर में
सुख , आनंद, सौरभ बिछा मिलेगा
स्वप्न और जागृति बीच जो भी
सुंदरहै, वह सत्य में व्याप्त रहेगा
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