भेज रहा हूँ प्रणय निमंत्रण
वृत्तहीन वह सुमन,जिसकी साँस गंध से
सुरभित है यह अग -जग , त्रिभुवन
जिस के स्वागत की प्रतीक्षा में खड़ी
रहती नियति नियत हर क्षण
जिसकेआगे तुच्छ है विपिन का नंदन
जिसके लिए चिर व्याकुल यह जीवन
भेजा है उसने मुझे प्रणय निमंत्रण
लिखा हूँ, सुर्य के प्रखर ताप से, जब आशा की
जल -वृष्टियाँ चहु ओर , बिखर कर सूख जायें
व्योम लगे धवल , मनोहर , चन्द्रबिंब से अंकित
स्वच्छ दीखने, तब अपने दिल का दाह मिटाने
जलद पुंज को भेदकर , मेरे पास चली आना
मैं तुम्हारे मन - प्राण ,दोनों को संतृप्त करूँगा
बाहर से वहाँ कोई साँकल चढा नहींहोता
वह तो अन्तःपुर से खुलता है, खोल लेना
जबतक धमनियों में रक्त संचार है
हृदय में काँपती धड़कन का लघुभार है
तभी तक तुम्हारे , सखा -मित्र हैं भुवन में
तभी तक घूर्णि -चक्र आँसू , झंझा प्रवेग
सपनों को दीर्ण - विदीर्ण करता रातों में
रूकते ही धमनियों का रक्त संचार
फैल जाता आँखों के आगे अंधकार
आलोक सभी मूर्च्छित हो जाते ,राशि-राशि में
जीवन मधु भूमि छोड़कर , मानव पहुँच जाता वहाँ
जहाँ ठंढे-बुझे अंगारों में जीवन का ताप नहीं होता
यहाँ दिवस का कर्म, रात्रि का मोह सपने में भी
भ्रांति पैदा कर,जीवन को अशांत रखता
उर की तप्त व्यथा प्राणों को स्पंदित रखता
जीवन के उष्ण विचारों की शांतिमयीशीतलता को
पाने योग्य इच्छा को होने नहीं देता
वहां जीवन- मरण स्वर्ग के गोपन स्वर्णिम द्वारों से
नित आता-जाता,सृजन हर्ष से निज संचालित होता
वहाँ अक्षय रस का सिंधु उमड़ता, जिसेपी - पीकर
इच्छाओं का मधुकर आनंदित होकर जीता
यहाँ भू खंडों-सा भग्न,मानव का मन शत-शत खंडों में
खंडित रहता,वहाँ महाशून्य का उत्स जो जीवन का
उदगम है,चेतना उसके आदि मूल को छूकर बहती
इन्द्रनील के लहरों पर बिखराती,ज्योत्सना का मोती
सांध्य समय , समस्त धरा को भस्मीभूत करने
पीताभ अग्निमय अम्बर में प्रलयदृश्य भरता
इसलिए त्याग कर धरतीके निष्ठुर जल का अवलंब
उर्ध्व नभ के प्रकाश को आत्मसात कर, उसके रूप
गंध,रस से झंकृत भूषण पहनकर यहाँ चली आओ
वहाँ भू के अंधकार में दुखता होगा तुम्हारा नयन
इसलिए भेज रहा हूँ , मैं तुमको प्रणय निमंत्रण
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