भीष्म साहनी—एक ऐतिहासिक साहित्यकार
गहन मानवीय संवेदना के सशक्त हस्ताक्षर, भीष्म साहनी का जन्म आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था । वे अपनी माता श्रीमती लक्ष्मी देवी तथा पिता हरवंश जी के सातवीं संतान थे । वे लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से 1935 में अंग्रेजी में एम० ए० किये । उसके बाद उन्होंने इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में ’ Concept of the Hero in the novel ‘ शीर्षक के अंतर्गत अपना शोध कार्य किया । सन 1944 में उनकी शादी शीला जी के साथ हुई । उनकी पहली कहानी, ’अबला’ थी, जो ’रावी’ पत्रिका में छपी, दूसरी कहानी, ’नीली आँखें’, हँस में छपी । उसके बाद, एक के बाद एक उपन्यास ’झरोखे’, ’कड़ियाँ’,’वासंती’, ’तमस’ , ’मय्यादास माड़ी’, कुत्तों, ’नीलू नीलिमा”, ’निलोफ़र’, लोक मंगल की भावनाओं से प्रेरित तथा समतामूलक प्रगतिशील समाज की कामना लिये, व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणाम, धर्म की विद्रूपता व खोखलेपन पर आधारित निकलती गई । भीष्म साहनी पूँजीवाद व्यवस्था के अंतर्गत वे जन सामान्य के बहुयामी शोषण को सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे । उन्होंने अपने उपन्यास ’ बासंती ’,’तमस’,”झरोखे’ , ’मय्यादास की माड़ी व कड़ियाँ ’ में आर्थिक विषमता और उसके दुखद परिणामों को बड़ी मार्मिकता से दर्शाया है । उनके अनुसार, इन दुखद स्थितियों के लिए दायी हमारी दोषपूर्ण समाज व्यवस्था है । भीष्म जी ने हमारे प्रख्यात उपन्यासकार, प्रेमचंद के समान जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान किया है । भले ही प्रेमचंद की तरह ग्रामीण वस्तुओं को वे नहीं छू पाये , परन्तु परिवेश की समग्रता तथा वस्तु व पात्र के सम्बंधों को वे जिस तरह खोलते हैं और जिस तरह इन सम्बन्धों के माध्यम से समाज में व्याप्त संघर्षों को रूपायित किये हैं; निश्चित रूप से उन्हें, प्रेमचंद के समक्ष तो नहीं, लेकिन उनके आस-पास जरूर ले जाता है । भीष्म जी ने जहाँ अपनी रचनाओं में जीवन के कटुतम यथार्थों का प्रमाणिक चित्रण किया है , वहीं जन सामान्य का चित्रण करने वाले लोकोपकारक आदर्शों को भी रेखांकित किया है । युग- युगांतर तक भीष्म जी अपनी इन्हीं कालजयी रचनाओं के लिए , उपन्यासकार के रूप में चिरस्मरणीय रहेंगे ।
वे देश के अनेकों उच्च पदों पर काम किये । 1965 से 1967 तक वे नई कहानियाँ पत्रिका में भी काम किये । प्रगति लेखक संघ और अफ़्रोएशियायी लेखक संघ तथा 1993 से 1997 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समिति के सदस्य भी रहे । भीष्म जी भारतीय गृहस्थ जीवन में पति-पत्नी को जीवन –रथ के दो पहिये के रूप में स्वीकारते थे । उनका मानना था, विकास और सुख के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य का बना रहना अति अनिवार्य है । वे अपनी रचनाओं में आदर्श दम्पत्तियोंको बड़ी गरिमा के साथ रेखांकित किये हैं । उनका विश्वास था कि स्त्रियों को, अगर समुचित शिक्षा मिले तो वे भी पुरुषों की ही तरह , समाज के हर काम को कर सकती हैं । भीष्म साहनी ’तमस’ के लिए 1975 में साहित्य अकाडमी द्वारा ’ शिरोमणि लेखक अवार्ड’, एफ़्रोएशियन राइटर्स असोसिएशन द्वारा ’ लोटस ’ तथा भारत सरकार द्वारा ’ पद्मविभूषण’ से विभूषित हुए । वामपंथी विचारधारा रहने के कारण भीष्म जी को दुनिया की चमचमाहट अपनी ओर खींच न सकी । वे सदा सादगी और स्वतंत्र जीवन बिताये । हम चाहेंगे, ऐसे उपन्यासकार हमारे और आपके बीच जब तक आसमां और जमीं सलामत रहे, तब तक युगांतकारी बनकर जीवित रहें ।
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