बिरजुवा के माता-पिता
संध्या हो गई थी, अब तक जो लोग खेत-खलिहानों पर काम के लिए गए हुए थे, सभी अपने-अपने घर की ओर भागे चले जा रहे थे| ठंढ, पिशाच की तरह धरती पर बढती चली आ रही थी| आकाश पर काले बादल का जमावड़ा बढ़ता जा रहा था| जब कभी बारिश की संभावना की चिंता में, कल का अलाव कैसे जलेगा, सोच चाचा लक्ष्मण, सूखे घास-फूस को बटोरने लगे, और आप ही आप बुदबुदाते हुए बोले, ‘ऐसे ही क्या कम ठंढ है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है| उस पर अब बारिश, भगवान ही बचाएगा| तभी उन्होंने देखा, परोस का बिरजुवा, एक नन्हें बच्चे को सीने से लगाए, अपने ही धुन में तल्लीन होकर कहीं जा रहा है| ऐसे मौसम में जहाँ लोग बाहर से घर की ओर भाग रहे हैं, और बिजुरवा घर से बाहर, वो भी एक नन्हें बच्चे को गोद में लिए, सीने से चिपकाये| सब कुछ चाचा को अटपटा सा लगा| चाचा ने बिरजुवा को आवाज देकर अपने पास बुलाया, पूछा, ‘अरे बिरजुवा! ऐसे मौसम में तुम इस दुधमुँहे बच्चे को लेकर कहाँ जा रहे हो? आओ, अलाव जल रहा है, थोड़ा ताप लो, थोड़ी गर्मी बच्चे को भी मिल जायगी| देखो! वह, कैसे शिशिर के पत्ते की तरह काँप रहा है|’
बिरजुवा, अलाव के पास बैठते हुए पूछा, ‘चाचा, क्या आपको मालूम है कि हमारे गाँव के छोड़ से होकर जो नदी बहती है, पौष पूर्णिमा की रात, वहाँ लोगों का जमावड़ा लगता है; आपने कभी देखा है?’ चाचा अचंभित हो बोला, ‘कैसा मेला!’ बिरजुवा, ‘पौष की पूर्णिमा की पूर्ण चाँदनी में, जब नदी की धारा संग चाँदनी की शीतल रोशनी मिलती है, जानते हैं चाचा, देखने में वह चाँदी के गलीचे सा दीखता है| लगता है नदी रत्नजडित आभूषण पहने, मीठे स्वरों में गाती, चाँद की तरफ सर झुकाए, नींद में सोते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही है|’ बिरजू के मुँह से प्रकृति की उस मादक शोभा का वर्णन सुनकर चाचा मस्त हुए चले जा रहे थे, मानो उनका बालपन अपनी सारी क्रीडाओं के साथ लौट आया हो| तभी बच्चा रोने लगा, जिसे सुनकर चाचा, जिनमें जागृत देवताओं का भाव आ गया था, बोले-’बिरजू, क्या ही अच्छा होता, बच्चे को तुम इसकी दादी के पास छोड़ देते| दादी का भी जी बहलता और यह भी ठंढ से बचा रहता|’
चाचा का यह वचन, तोपों की गोले की तरह जो दीवार तक को छेद कर डालता है, बिरजू के ह्रदय को छेद कर दिया| बिरजू, कुछ क्षण मूर्तिवत बैठा रहा, फिर कुछ जवाब न देकर, मुन्ने को पुचकारते हुए, सर झुकाकर, मानो जूते पड़ गए हो, जाने लगा| बिरजू का ऐसा व्यवहार देखकर, चाचा का आरक्त मुख-मंडल आग की भाँति, उनके अंत:पट को जलाने लगा| चाचा ने सहृदयता से पूछा, ‘बिरजू, तुम्हारे माता-पिता तीर्थ पर निकले हैं, क्या इधर कुछ दिनों से वे लोग दीखते नहीं हैं; अन्यथा दो-चार दिनों में एक बार दर्शन तो हो ही जाया करता था|’
बिरजू, निश्चय भाव से कहा, ‘हाँ, कुछ ऐसा ही समझो!’
चाचा, गर्वपूर्ण नम्रता से पूछे, ‘कब लौटेंगे वे लोग?’
बिरजू, अपना गंजा सर हिलाकर बोला, ‘पता नहीं|’ फिर, मुँह बनाकर कहा, ‘जब लौटेंगे तब दिखेंगे ही, कोठी का धन तो है नहीं, जो बंदकर रख दूँगा|’
चाचा बिरजुवा का हाव-भाव देखकर, विद्रोह का भाव धारण करते हुए बोले, ‘वाह बेटा, जो तलवार कभी केले नहीं काट पाती थी, आज तलावारनी की सान पर चढ़कर लोहे को काटने लगी| किसी ने सच कहा है, गुड़ खिलाकर जान लेने वाले की अपेक्षा, जहर खिलाकर मारने वालों की संख्या कम है|’
बिरजुवा, अपनी योग्यता, दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकता, सो उसने भी कह दिया, ‘ठीक है चाचा, मैं गंवार हूँ, मुर्ख हूँ, फिर आप अपने दरवाजे पर मुझे बुलाते क्यों हैं?’
चाचा झुंझलाते हुए बोले, ‘बिरजू, बेबात की बात मत बनाओ, मगर तुम्हारी जानकारी के लिए यह बता देना चाहता हूँ कि अन्य यात्राओं की तरह विचार के भी पड़ाव होते हैं| तुम एक पड़ाव को छोड़कर, दूसरे पड़ाव पर तब तक नहीं जा सकते, जब तक पिछले पड़ाव के इतिहास को, प्रत्यक्ष कोई सबूत नहीं दे देते| जानते हो, जिस माता-पिता को हमारे शास्त्र में देवता का दर्जा दिया गया है, उसके लिए तुम्हारे ह्रदय में मात्र दया है, प्रेम नहीं और जब प्रेम नहीं तब दया कैसी? सुना है, जो जिससे प्रेम करता है, उसकी आतुर, नम्र, शांत, सरल मुद्रा सदा ही प्रेम करने वालों के समक्ष फिरा करती है, तब उससे दूर रहना मुश्किल हो जाता है|’
चाचा की बातें सुनकर, बिरजुवा की आँखों में चाचा के लिए तिरस्कार की ज्योति चमक उठी| उसका पुरुषत्व लज्जित हो उत्तेजित हो उठा| उसने दृढ़ स्वर में बुदबुदाया, कहा, ‘भाषण अच्छा दे लेते हैं, फिर आऊँगा सुनने, अभी के लिए धन्यवाद!’
चाचा ने भी मन ही मन कहा, ‘इतनी देर तक मुझको, जो तुमने बर्दास्त किया, उसके लिए शुक्रिया|’
बिरजुवा के जाने के बाद, यह बात चाचा के ह्रदय में लहरों की भाँति उठती-गिरती रही कि बिरजुवा के पास विलास के साधनों की कमी नहीं है| अव्वल दर्जे का मकान है, जमीन है, अपार धन का मालिक है| तो क्या संपत्ति की ऊँची दीवार ने माँ-बेटे को दूर कर अलग कर दिया|
एक दिन चाचा, सैर करके लौट रहे थे, तभी रास्ते में उनकी मुलाक़ात उनके एक पुराने मित्र से हो गई| दोनों में राम-सलाम हुआ, गले मिले, हाल-समाचार जाना| चाचा—फिर मिलेंगे बोलकर जब जाने लगे, उनका मित्र हतबुद्धि सा खड़ा, संज्ञाहीन होकर चाचा को जाते हुए देखता रहा| चाचा ने जब पलटकर देखा, उनको लगा, ‘मेरा मित्र मुझसे कहना चाह रहा है|’ वे जल्दी-जल्दी कदम बढाते हुए मित्र के पास आये और पूछा, ‘मित्र कुछ कहना है? ‘
मित्र दुःख प्रकट करते हुए बताया, ‘एक बात तुमको बताना भूल गया था|’
चाचा बोले, ‘तो बता डालो न, देर किस बात की?’
मित्र ने बताया, ‘जानते हो, वो जो अपने मोहल्ले का बिरजुवा है ना, उसने माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेज दिया है|’
चाचा अचंभित हो पूछा, ‘कब, क्यों?’
मित्र, ‘यह सब तो नहीं पता, लेकिन हाँ, रूप-राशि की खान सुषमा, जिस दिन से बिरजुवा की पत्नी बनकर, बिरजुवा के घर कदम रखी, उसी दिन से वह अपने सास-ससुर के साथ घर में कलह शुरु कर दी और एक समकोण बनाने वाली रेखाओं की भाँति, उनदोनों से अलग हो गई| इतना तक तो ठीक था मित्र, असह्य तो तब हो गया, जब बिरजुवा के सामने उसकी पत्नी सुषमा, चाची से मारपीट करती थी और बिरजुवा चुपचाप, गम साधे देखता रहता था|’
चाचा अवाक होकर बोले, ‘तो क्या गाँव के लोग, वे भी चुप रहे?’
मित्र ने कहा, ‘बहू के निर्णय की अपील कहीं नहीं थी, सो परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही दोनों पति-पत्नी (बिरजुवा के माता-पिता) अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिये| जानते हो मित्र, वे लोग, उन लोगों में नहीं थे, जो अपने स्वार्थ के लिए, अपना अच्छा-बुरा बिना सोचे, बहू के हुक्म का तालीम करते|’ उनका कहना था, ‘चाहे जैसी भी नौकरी करो, पहले अपनी आत्म-रक्षा करो|’ वे लोग भी बहुत आत्म-स्वाभिमानी थे तभी अपनी आत्म-रक्षा के लिए खुद ही घर छोड़कर चले गए|
चाचा पूछे, ‘कहाँ?’
मित्र ने बताया, ‘नहीं मालूम|’
चाचा, ‘गाँव के पंचायत से शिकायत क्यों नहीं किया?’
मित्र, ‘वाणी को अगर सत्य की ताकत न मिले, तब सत्य भी गूंगा हो जाता है|’
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