Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चाँदी की बिछिया

 

चाँदी की बिछिया 


बीते दो सालों से , सिमरण की बड़ी इच्छा थी ,माघी पूर्णिमा पर गंगा-स्नान की, जो इस साल पूरी हो गई | मगर एक दूसरी इच्छा वहाँ से साथ लेती चली आई , जिसे पूरी होती न देख , वह विक्षिप्त रहने लगी | हर समय उसे बस एक ही चिंता रहती थी , इसे कैसे हासिल किया जाय ? इसी खिन्नावस्था में बैठी हुई थी कि तभी उसकी सास , शांति तिलमिलाती हुई आई , बोली --- बहू, घर में मेहमान आये हैं, और तुम चुपचाप यहाँ बैठी हुई हो , अरि ! उसके खाने-पीने का इंतजाम करना होगा न ? 

सिमरण,सास की बात सुनकर प्रचंड हो बोली---- माँ जी ! निंदा के भय से, प्रत्येक आपत्ति के सामने सिर झुकाना, आपके लिए अच्छी बात होगी, पर मुझे मजबूर मत कीजिये | आपकी शिष्टता का आधार ही आत्महत्या है | घर में अनाज के दाने भले न हो , किन्तु कोई मेहमान आ जाए, तो ऋण लेकर भी उसका सत्कार करो | मैं ऐसे मेहमान को दूर से ही प्रणाम करती हूँ , चाहे वह मेरा भाई और पिता ही क्यों न हो | असमय बिना सूचना के किसी के घर , दो आदमी मिलकर ,जाड़े की रात में बिना चादर-कम्बल के आ धमकना, अत्याचार नहीं तो क्या है ? नित कोई न कोई निठल्ले नातेदार बताकर यहाँ खाट तोड़ता रहता है | इस कदर बहू का जोर-जोर से चिल्लाकर बोलना, शान्ति को पसंद नहीं आया | वह उल्टे कदम, बेटे अनुराग के पास गई , पूछी---- अनुराग ! आजकल बहू बड़ी तैस में बात करती है | क्या बात है, जब से गंगास्नान कर लौटी है, न किसी से बोलना, न रसोई बनाना, कैसे चलेगा ? घर-बाहर दोनों मैं  देखूँ, ऐसी मेरी उम्र तो रही नहीं, बहू कहती है --- आपलोग अतिथि-सत्कार में धन-व्यय क्यों करते हैं ? बेटा ! इसे तो कुल-मर्यादा की भी परवाह नहीं है | हमेशा यहाँ की तुलना अपने माइके से कर मुझे नीचा दिखाती है ; उसे पता होना चाहिए , अतिथियों का आना-जाना, और उसका सत्कार करना, हमारी प्राचीन प्रथा है | इसे तोड़कर समाज में लोग, सुखी जीवन निर्वाह नहीं कर सकते | अब उसे तुम्हीं समझाओ, कहो---हमारे घर-आकाश की सरलता, श्रद्धालुता और निर्मलता में, अपनी स्वार्थांधता, कपटशीलता और मलिनता से कालिमापूर्ण न करे , अन्यथा हम अपनी ही दृष्टि में गिर जायेंगे |

अनुराग, सिमरण के कमरे में जाकर, सिमरण की तरफ अनुरोध नेत्रों से देखकर पूछा ---- क्या सब कुशल तो है ? ऐसा कहकर, दरअसल अनुराग, समीरण की मनोमालिन्यता को मिटाने के लिए, अपनी आत्मीयता को उपहार स्वरूप प्रकट किया |

समीरण, अनुराग के शब्द - मर्माघात को सह न सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा | वह झमककर वहाँ से चली जाने के लिए उठी | मगर अनुराग ने, अपनी बाँहों के दायरे में बाँधकर उसे वहीँ रोक लिया, और कातर नेत्रों से पूछा ------ आजकल (मेरे कहने का मतलब) जब से तुम गंगा स्नान से आई हो, कुछ बदली-बदली सी क्यों रहती हो ?  क्या माँ ने कोई गलती की है, या मुझसे  कोई अपराध हुआ है ? 

सिमरण, मन ही मन अपनी आशाओं की पुष्टि और समाधान चाहती थी ; इसलिए उसने सोचा -----बिना देर किये बता देना उचित होगा , ऐसे भी मनोभाव पूर्व विचारों को प्रकट करने के निमित्त कैसे-कैसे शब्द गढ़ते हैं , परन्तु समय पर शब्द हमें धोखा दे जाते हैं , और वो भावना, स्वाभाविक रूप से प्रकट नहीं होती | 

              सिमरण, भविष्य चिंता की पाठ नहीं पढ़ी थी | उसका जीवन-ध्येय बस इतना था, खाना –पहनना और नाम के लिए मर जाना | वह अनुराग के वंशगत संपत्ति का अधिकांश हिस्सा बर्बाद कर चुकने बाद भी, अपने व्यवहारिक जीवन में संशोधन करने की जरूरत नहीं समझती थी | गंगा-स्नान से लौटते वख्त बातों –बातों में जब से अनुराग ने सिमरण से बताया है, कि महाजन को पैसे लौटाने के लिए खेत तो गिरवी रखा , मगर पैसे लौटाने का समय निकाल नहीं सका | सभी पैसे घर में हैं , समीरण यह जानकर ऐसी प्रफुल्लित हुई , जैसे प्यासे को पानी मिल गया |

बस तभी से सिमरण घर की आलमारियों और ताखों की ओर उत्कंठित नेत्रों से निहारने लगी , यह सोचकर कि भूलबस अगर आलमारियाँ खुली रही होंगी , तब सबसे नजरें बचाकर, कुछ पैसे निकाल लेती | जिससे बरसों की इच्छा ( पाँव की बिछिया ) पूरी हो जाती | मगर ऐसा कभी नहीं हुआ , कि अनुराग आलमारी खुला छोड़ा हो | उसे तो खुद कर्ज की चिंता-व्याधि घेरे रहती थी ; आखिरं एक दिन सिमरण ने मन ही मन तय किया , चाहे बिछुआ पाने के रास्ते कितने ही दुर्गम क्यों न हों , मुझे उस पर चलना होगा | उसने तय किया , जब तक बिछिया हासिल नहीं कर लेती , मैं इस वर्ष को शोकसाल की तरह बिताऊँगी, कोई उत्सव नहीं मनाउँगी ; चाहे वह धार्मिक उत्सव ही क्यों न हो |

              दशहरे का उत्सव था | सभी के मुखमंडल पर एक गर्व की ज्योति झलक रही थी लेकिन सिमरण की आँखों में दर्द के आँसू भरे हुए थे | नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं में ग्रस्त जीनेवाले, अनुराग को यह समझते देर न लगी, कि सिमरण चुपचाप एक तपस्विनी की भाँति अपने कमरे में क्यों पड़ी रहती है ? क्या वह अपनी दीनता को अपने पैरों तले कुचलने की कोशिश कर रही है , जो कि असंभव है |

अनुराग,दीन भाव से समीरण की तरफ देखा , और बोला  --- क्या बात है सिमरण ? 

सिमरण सोचने लगी ---- किस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट करूँ ? उसने अपना मुँह ढंक लिया और तय किया ---- अनुराग के पूछने से ,कठोरता से कह दूँगी कि मेरे सर में दर्द है , मुझे तंग मत करो | तब वह अवश्य समझ जायगा ,कि कोई बात मेरी इच्छा के प्रतिकूल हुई है | जब वह गिड़गिड़ायेगा , तब व्यंग्यपूर्ण बातों से उसका ह्रदय बेध दूँगी | इससे व्यथित हो, वह मेरी हर बात को मानने के लिए बाध्य हो जायगा , और वही हुआ भी,त्याग ने भोग की तरफ सर झुका दिया |

अनुराग, अपने भय-लताओं के झुरमुट में छुपकर कहा----समीरण, एक आश्रयहीन को यहाँ रात ठहरने मिलेगा, कहकर उसका हाथ पकड़ लिया |

समीरण,झटका देकर अपना हाथ छुडा ली, और बोली ----और तो और, तुम भी मेरा प्राण-ग्राहक बन गए हो !  

              अनुराग मर्माहत होकर बोला---- सिमरण, होश में तो हो, मैं तुम्हारा प्राण-ग्राहक बन गया हूँ , यह सब कहने से पहले एक बार विचार तो कर लेती | तुम्हारा यह आरोप सर्वथा निर्मूल है | शंका की भित्ति पर दीवार उठाना ठीक नहीं , तुम्हारी दशा तो अभी उस पौधे सी है , जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के  सुव्यवस्था करने पर भी दिनोदिन सूखता जाता है | तुमको क्या हुआ है , दयाकर अपने दिल का बोझ उतारकर,मेरे सिर का बोझ हल्का कर दो | सिमरण को मानते-मनाते तीन घंटे बीत गए , द्वादशी का चाँद अपना विश्व- दीपक बुझा दिया | गाँव की गलियों में सन्नाटा छा गया | अनुराग की आँखें नींद से बोझिल थीं | उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा --- सिमरण, सुबह होने  ही वाली है ; कुछ देर सो लेती ,तो अच्छा था | 

अनुराग के जागते ही मौन बैठी सिमरण उग्र होकर बोली ---- पता नहीं, मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ | संसार में लाखों स्त्रियाँ, मेहनत-मजदूरी कर अपनी जिंदगी काट रही है, मैं अपने पाँव की एक जोड़ी बिछुवा नहीं खरीद सकती | 

अनुराग, जानता था, समीरण के साथ कपट करके , मैं अपनी नीचता का परिचय दे रहा हूँ --- दोषी मैं हूँ, जो अपनी असली दशा को, बदनामी की तरह सदैव तुमसे छिपाता रहा | मुझे माफ़ कर दो, मैं एक गरीब आदमी हूँ , दो रोटी के सिवा और कुछ सोचना मेरे लिए पाप है, पाप |

सिमरण सिसकती हुई कही --- अनुराग, असल में तुम्हारी नीयत में खोंट है | नहीं तो इतना बहाना नहीं करते , पैर की बिछिया ही तो माँगी थी , सोने की हार तो नहीं | तुम्हारे पास अभी पैसे हैं , तुम चाहते नहीं देना |

अनुराग व्यथित स्वर में कहा ---- जिस पैसे की तुम बात कर रही हो, वो कर्ज के पैसे हैं , जिसे चुकता करने के लिए, मैंने अपने बाप-दादा की अंतिम निशानी,अपने घर का एक हिस्सा बेच दिया है | मैं मानता हूँ , आभूषण मंडित इस विश्व में, तुम्हारा आभूषण-प्रेम स्वाभाविक है | मगर अभागे के घर ब्याही कन्या,अपने कर्मों का नहीं, बल्कि अपने जीवन-संगी के कर्मों का फल उसके साथ रहकर, उसकी दरिद्रता में भोगती है | मैं जानता हूँ, समीरण तुम्हारी यह वेदना रजनी से भी काली, और दुःख-समुद्र से भी विस्तृत है | मगर क्या तुम जानती हो, सोने–चाँदी से लदी राजमहल में रहने वाली, ( सर्वसुख संपन्न ) रानियाँ भी नित घुंट –घुंट कर जीती हैं ? क्यों,उनके पास स्वर्ण तो है, मगर उसे देखने वाला नहीं होता ? राजा की कई रानियाँ होने के कारण, महीने में एक बार भी पति-प्यार नहीं मिलता है, तब वही आभूषण गले में सर्प जैसा तकलीफ देता है | 

समीरण, हतबुद्धि अपराधी सी,अनुराग की तरफ देखकर बोली----- तुम्हारे कहने का अर्थ, इस धरती पर कोई सुखी नहीं है | 

अनुराग, एक नि:श्वास छोड़कर कहा ---वो इसलिए कि , इस  अनंत ज्वालामुखी सृष्टि के कर्त्ता, इसी दुःख-दर्द से डराकर ही तो, अपने होने का अस्तित्व का एहसास कराता है | जानती हो, अमीरी की बाढ़ में बहकर मिट जाने वालों की संख्या गरीबों से अधिक है ; कारण आँधी-तूफ़ान में बड़े-बड़े वृक्ष गिरते हैं , घास-पौधे नहीं |




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