डा० श्रीमती तारा सिंह
पिता के स्नेह की किसलय शैय्या पर, पैर पसारकर मैं सोने की कोशिश ही कर रही थी, कि विधाता की क्रूर आँधी में वे कहीं खो गये । हाँ, माँ की याद ताजी है; दोपहर के वक्त आँगन में गूदड़ पर बैठकर, पिताजी की छोटी-छोटी कुछ यादें बताया करती थी; कहती थी,’मेरे साथ न्याय करने में भगवान ने धोखा किया । अगर वह सही न्याय किया होता, तो आज तुम्हारे पिता, यहीं हम दोनों के बीच, इस गूदड़ पर बैठे बातें कर रहे होते । माँ के लाड़ की ओस अभी मेरे वदन को पूरी तरह गीला भी न कर सकी थी, कि एक दिन वह आँगन बुहारती-बुहारती ,धड़ाम से गिर पड़ी । मैं, माँ-माँ कर चिल्ला उठी । मेरी चिल्लाहट सुनकर ,आस-पड़ोस के लोग दौड़ पड़े । किसी ने कहा,’ जूता सुंघाओ,मिरगी है; किसी ने कहा ,’ पंक्षी उड़ चुका, यह तो पिंजर है । तभी पड़ोस की दादी ने गाँव वालों से कहा,’देखते क्या हो, मिट्टी के अंतिम संस्कार की सोचो ।’ ये बेचारी तो गरीब है, इसलिए हमें ही मिल-जुलकर कुछ करना होगा ’। इसके बाद क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम; लेकिन हाँ, सेठ के हाथ मैं,माँ के लाश के सामने बिक गई । उन्होंने दादी को कुछ पैसे दिये, पता नहीं; माँ का संस्कार हुआ भी या आँगन बीच कुत्ते- कौवे नोच-नोचकर खा गये !
मेरे सर से माँ-बाप की छ्त्र-छाया उठने के बाद सेठ की छत्र-छाया में रहने मैं उनके घर आ गई । समय के साथ-साथ मैं बड़ी होती गई । मुझे याद है, जब मैं 15-16 की रही होगी, जुलाई का महीना था ; मूसलाधार बारिश हो रही थी । मालकिन ने कहा,’ मालती, बाजार से कुछ सब्जियाँ ले आओ । ’ मालकिन की
कही बात, टालने की शक्ति मुझमें क्या, मालिक में भी नहीं थी । मैं पास पड़ा, मालकिन के छाते को ले्कर सब्जियाँ लाने बाजार चली गई । बाजार से लौटने पर देखा, मालकिन चौकठ पर खड़ी , मेरे आने का इंतजार कर रही है । मैं समझ गई, अब मेरी खैर नहीं और वही हुआ,जिस बात से मैं डर रही थी । मालकिन मेरे गाल पर तमाचे जड़ती हुई, मेरे हाथ से सब्जी की थैली छीन ली और बोली,’ दो पैसे की लड़की , ठाठ तो कम नहीं, बारिश में बिना छाता के निकलने से तू गल तो नहीं जाती । मेरा छाता लेने की ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ? ’ मैं काफ़ी रोई, गिड़गिड़ायी; लेकिन मालकिन मेरी एक न सुनी और उस दिन मेरा खाना बंद कर दी ।
मैं सरभेन्ट रूम में, अपने नसीब पर रो ही रही थी, कि किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया । मुझे लगा, मालकिन को मेरे ऊपर दया आ गई, शायद मुझे खाने जाने कह रही है । मैं आँसू पोछते हुए जब दरवाजा खोली,अवाक रह गई , मालिक खड़े थे । मैंने पूछा---मालिक, आप ! मालिक ने कहा--- तू भूखी सो रही थी, मुझे अच्छा नहीं लगा । ले, मैं तेरे लिए रोटी और सब्जी लाया हूँ ; मालकिन सो रही है, जल्दी से खा लो । मैने कहा---नहीं आप चले जाइये, मुझे भूख नहीं है । उन्होंने कहा---अन्न से गुस्सा नहीं करते,मैं तुझको खिला देता हूँ, चल बैठ । उसके बाद उन्होंने दरवाजे को भीतर से बंद कर दिया । जब मैंने पूछा---चाचा, दरवाजा क्यों बंद कर रहे हैं ? मालिक ने कहा---तुम्हारी मालकिन देख लेगी; तू जल्दी से खा ले,मैं चला जाऊँगा । इसके बाद उन्होंने मुझे जबरन अपने गोद में बिठाकर रोटी खिलाना शुरू किया और बोले ---आज से तू मालकिन का छाता नहीं लेगी, मेरा छाता है न, वो लेना । मालिक
के मन में क्या है, मैं भाँप गई । मुझे लगा कि, मुझे चिल्लाना चाहिए और मैं चिल्ला पड़ी----मालकिन, मालकिन । मालकिन जब तक मेरे कमरे में आती, मालिक भाग गये और जाते-जाते कह गये---परिणाम के लिए तैयार रहना ।
उसके बाद से मैं मालिक से डरी-डरी सी रहती थी । एक दिन अचानक, मालिक ने मेरा नाम लेकर बुलाया और कहा---मालती, मेरा छाता पसंद नहीं है, तो कोई बात नहीं ; लेकिन तुझे एक छाता तो चाहिए , दुनिया की आँधी और तुफ़ान से बचने के लिए । मैं सहमती हुई धीरे से बोली---हाँ, मालिक ! दूसरी ओर खड़ा एक लंगड़ा, काला-कलूठा, नाटा आदमी को दिखाकर मालिक बोले ---वो रहा , तुम्हारा नया छाता , यह जीवन भर दुनिया की आँधी और बरसात से बचायेगा । मैंने उसकी तरफ़ देखा, तो लगभग बीमार दीख रहा था । मैंने चाचा से कहा--- चाचा ! ऐसा छाता किस काम का, जो फ़टा, कटा और टूटा हो ; यह मुझे क्या बचायेगा,दुनिया की आँधी और बरसात से । इसे तो खुद एक छाते की जरूरत है ; हो सके तो इसे अपनी छ्त्र-छाया में रख लो , मैं अपने लिए खुद ढूँढ़ लूँगी । तुम इसकी चिंता करो, मेरी नहीं । मालिक मेरा मुँह देखता रहा और मैं रोती हुई उनके घर को सदा के लिए छोड़ आई ।
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