चिंता करता हूँ मैं जितना
चिंता करता हूँ मैं जितना
विश्व कुहर में डूब जाता हूँ उतना
सोचता हूँ , मेरी छाती से लिपटा
दर्द, जो दिन-रात मेरे गात को
शिशि–पात सा हिलाया करता था
जो हर क्षण , गिरि श्रेणी सा
मेरी आँखों में खड़ा रहता था
जिसके कौतुक क्रीड़ा के प्रबल वेग
का श्रोत, उछल – उछलकर, मेरे
प्रा्ण जल को करता था हिलकोरा
उससे कैसे कह दूँ कि,जिस आकस्मिकता के
कण से बना था मैं, उसी में फ़िर से
मिल , विलुप्त होने जा रहा हूँ आज
तुम्हारा तो न अंत , न पथ, न लक्ष्य
देकर तुमको जीवन दान, कैसे ले चलूँ साथ
नियति पर मेरा स्वल्प अधिकार नहीं
जनारण्य से दूर , जहाँ शून्य से बना
मौन, नाश विध्वंश का प्रभाव नहीं
वहाँ जाकर अपना घर बसाऊँ,आज तक
किसी मनुज को,मिला अधिकार नहीं
ऐसे भी मानव जीव न वेदी पर
परिणय हो केवल मिलन संग मिलन का
विछोह का हो कोई आधार नहीं
तब कैसे कोई , विश्वास करेगा
नियति से पाये अपने सुख पर, जो
दुख का किया कभी अवसाद नहीं
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