Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम

 

चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम



विरह  ज्वाला  के साँचे  में ढ़लने

सूने गृह – आँगन के कोने में रोने

संध्या   की   मलिन  सेज   पर

पहनाकर  वेदना  का  जलद  हार

तुम  कहाँ  गये,  मेरे   प्राणाधार


है कसम  तुमको, नभ  में देखो

चतुर्दिक  तम तोम घटा है घिरी

ऐसे  में कैसे  समायेगी अब वहाँ

तुम्हारी छाया छबि महिमा वाली


तुम लाँघ  क्षितिज की  अंतिम देहरी

उतर  आओ  धरा पर  फ़िर एक बार

जान जाओ मेरे दिल का कैसा है हाल

देख जाओ कैसे बीत रहा जीवन काल


खड़ी  हूँ कर  में  लेकर,  स्मृतियों  की  अंजलि

झूम  तुम्हारी  मेघमाला  में, चपला बन  मिटूँगी

चित्रित  कर जग  स्पंदन में, अपनी अमिट प्यास

कलियों को  करूँगी  सुरभित, लुटा अपना अवदात

दूर्वा के कंपन से, मिट न जाये तुम्हारा चरण चाप

रखती हूँ मैं गिन-गिन  कर पाँव, होती है जब रात





बाती – सी   तिल- तिलकर   मिटती  हूँ

जल- जलकर   अपनी   ही  ज्वाला   में

ढाल,     हलाहल        पीती   हूँ   मैं

अपनी   साधों   से  निर्मित   प्याला  में

मेरे     प्रति,   रोमों    से   झड़ता   है

नर्झर –सा,  झर-झर कर  ज्वाला की आग

आसक्ति से विरक्ति तब होती है मुझको जब

मोतियों का हार पहनाने आती दुख की रात


गर्जन के शंखों से, झंझा के झोकों को बुलाती हूँ 

खोलने  मैं,   अपने   हृदय   का   रुद्ध  द्वार

लहरों – सी ,  पवन   के    स्तर - स्तर  से

कोटि-  कोटि   पीड़ाएँ,   विविध   पंचशर  के 

वाणों   से,      करतीं   मुझ    पर    वार

भाग्य-  ज्योतिषी  कहता, तुम्हारी हस्त -रेखाएँ

बता रहीं,  और  बहुत  कुछ  हैं  विपदाएँ बाकी

उससे भी    करना  है  तुमको  नयन    चार


तुम   चित्रित,   मैं  हूँ  रेखा - क्रम

तुम   असीम,   मैं   सीमा -  भ्रम

तुम्हीं बताओ, कैसे निभाऊँ  लोकाचार

तुम छोड़कर, प्रतिष्ठापुर का स्वर्ण द्वार

फ़िर से उतर आओ धरा पर एक बार

तुम  बिन   मेरा  क्षण - क्षण सूना

रात होती  दूनी, दिन   होता चौगुना




नव    वषंत    पतझड़    बन    आता

मेरे    आँगन     बीच   करता   संचार

मेरे  अलस  पलकों    से  पता   मिटाने

स्वप्न   खग  छोड़  दिया  नयन   बसेरा

अब  रहता  यहाँ  केवल  एकांत  अंधकार

तुम  आभा  का  सागर  बन, उतर  आओ

मेरे  तृषित  नयनों  में  नीरव  प्रीति  को

विकसित   कर,  चिर  प्रतीति  की  मधुर

मुक्ति     का     अनुभव     करा    दो

भर दो मेरे जीवन में,अपने श्वासों की सुबास

तुम   कहाँ     गये     मेरे    प्राणाधार


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ