Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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डूबअमर हो जाऊँगा

 

डूबअमर हो जाऊँगा

मैं  घाट - घाट मारा फ़िरता

लेकर जीवन की जर्जर नौका

शायद  कहीं  मिल जाये वह

रूपधन , जिसे  देखने  मेरा

नयन   जीवन  भर  तरसा


जिससे   प्राणवंत   है   निरंतर

निखिल   गगन , सम्पूर्ण  धरा

जो  किरण  बन  डाली-डाली में

नव  जीवन  भरकर करता नया

जिसने दिया है मुझको जगत के

आनंद  यग्य का ,सुनहरा न्यौता


कहा  जल-थल, फ़ल-फ़ूल  सब में

मैं  ही  हूँ  खुद  को बिखेरा हुआ

तीनो  काल  मेरे  वश  में जीता

तू ताल-ताल में बिखेर अपनी गंध

गहन  अंधकार में भी,मैं ही रहता



तभी  तो  मैने  प्रसन्नता में डूबा

मन - प्राण  लिए , इस धरा  पर

मनुज   जनम   को    स्वीकारा

अब  जब  मेरे काम खत्म हो गये

दिन  अवसान  की   आई   वेला

तब   कहते  हो  तुम, मैं  तुम्हारे

पावन   चरणों   के  योग्य  नहीं

सांसारिक हाट में बैठकर कुछ दिन

और   तौल   तुम   अपनी  पीड़ा


माना  कि  मेरी  साधना  विफ़ल रही

वैसी  नहीं  रही, जैसा   तुमने  चाहा

पर तुम नहीं जानते,सूख चुका जो फ़ूल

जीवन   वन  का ,महक -  महककर

कितना  रुलाता , कितनी  देता  पीड़ा


विविध काम-काजों में उलझा जीवन

कभी  न  सुधि  ले  पाया  तुम्हारा

पर  तुमने  भी तो कभी नहीं,अपने

करुणा  जल  से  मुझको  नहलाया

जब  कि  तुम्हारी  दूत, मृत्यु  रोज

गुजरती   मेरे   घर  के  आगे  से

साथ चलने उससे भी नहीं कहलवाया


मैं  एकाकी  कंठ  से   पुकारता   रहा

तुमको,  ले  - लेकर   नाम   तुम्हारा

तुम्हारे  शंख  का  गर्जन  भी धरा पर

रह- रहकर  सुनाई पड़ता रहा, पर कभी 

सुवासित मंद पवन का झोंका बन तुमने

इस  दीन-हीन  का  दरवाजा खट्खटाया


कई  बार  मृत्यु  के बीच ढँके 

प्राण   को  भी   मैंने  उघारा

कहा , तुम्हारे  अंग - अंग  में

है  अमिट  मलीनता  लगी हुई

तू  हिय  में चाहे जितना लहर-

लहरा ले,मिलने वाला न किनारा


छोड़   सोचना , मिलेगा  जब  वह  , तब

उसके   रूप    उदधि   में   डूब,  अपने

प्राणों   का  तार  उसके  चरणों  से  बाँध

चरम तान पर जीवन का शेष गान सुनाऊँगा

अब  वेदना  ढोना  मेरे  वश  की बात नहीं

जीवन  की  जीर्ण  तरी कहाँ ले जाऊँ,पूछूँगा


संध्या  वेला की पूजा मेरी विफ़ल न जाये

डूब किसी तिमिरानद में, अमर हो जाऊँगा

तुम्हारे  आदि-अंत को तो मैं नहीं जानता

फ़िर   भी  तुमको  ढूँढ़ने , यहाँ  आऊँगा

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