Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दादा , आपने भगवान को देखा है

 

   दादा , आपने भगवान को देखा है


ऊँची -ऊँची पहाड़ियों के लता-कुंजों से अलंकृत, आम, कटहल, नीम, इमली के वृक्षों का एक हरा-भरा , कुटुम्ब से आबाद , जंगली फूलों के छोटे-छोटे सुगंधित फूलों से महामोह करने वाला हरित सिंह के गाँव, रतनपुर जो भी जाता , मंत्रमुग्ध हो कहता, यहाँ के निभृत कुंजों में भला कौन नहीं विश्राम करना चाहेगा |
एक दिन एक वैरागी, कहीं से भटकता-भटकता आया, और वहीँ का होकर रह गया | हरित सिंह का एकलौता पोता, मीठा सिंह ( उर्फ़ सोनू ), अपने घर की छत पर खेल रहा था, कि अचानक उसकी नजर , एक शिलाखंड पर बैठा उस वैरागी पर गया, जो पूर्व की ओर मुँह किये ध्यान-मग्न था | सोनू यह सब देख अचंभित हो, सोचने लगा----- गोधूलि मुक्त गगन के अंक में आश्रय खोज रही है , मगर वह आदमी कौन है, जो फटे कम्बल से अपना तन ढंके अभी तक निर्भीक और बेपरवाह बैठा हुआ है | कोई हिंसक जीव उस पर हमला न कर दे ! वह दौड़ता हुआ, छत से उतरकर, आँगन में अपने दादा के लम्बे मूँछों से खेलते हुए पूछा -------- दादाजी , दादाजी ! संध्या हो रही है, सभी लोग अपने-अपने घर लौट आये हैं | मगर वह आदमी अभी तक वहाँ बैठा हुआ है | क्या उसे हिंसक जीवों से डर नहीं लगता ?
हरित सिंह, सोनू के हाथों से अपनी मूँछ का बचाव करते हुए, बोले------बेटा ! वह , अपनी माता का अंक, पुत्रसुख, दर्शन का सुख, यथाविभव सब को अपने पैरों से ठुकराकर, ईश्वर के शरण में आ गया है | अब उसे किसका डर , उसकी सौन्दर्य विकृत आँखें कहती हैं कि कितने ही रात उसने जागते हुए बिताये हैं |
फिर अभिमान भरी हँसी के भाव से कहा------ लगता है, यह कठोर व्रत किसी वैधव्य का आदर्श देखकर उसने सीखा है , समझा है कि मनुष्य, किसी भी वासना का दमन कर सकता है , अगर वह दृढ़ संकल्प कर ले |
सोनू गर्व के साथ पूछा----- दादा ! आपने भगवान को देखा है ?
हरित सिंह , जो सर्वसद गुणों के साक्षात अवतार थे, गंभीर हो गए | वे किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सम्पूर्ण आत्मा उसमें डाल देते थे , बोले----- देखा, और नहीं भी देखा |
सोनू शांत शीतल ह्रदय से कहा----- दादाजी ! मैं कुछ समझा नहीं, जब आपने ईश्वर को देखा, तो फिर देखा कैसे नहीं ? सोनू के अभियोग इतने सप्रमाण थे , कि हरित सिंह को बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था | वे स्वयं निराश हो गए | सिट्टी-पिट्टी भूल गई, मानो किसी ने बुद्धि हर ली | वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती थी, अब इस गुत्थी को भी नहीं सुलझा पा रही थी |
वर्त्तमान दशा में उन्हें मितव्ययिता के सिवा दूसरा उपाय नहीं सूझ रहा था; कहा------ ईश्वर के दर्शन की कल्पना-मात्र से मनुष्य का ह्रदय विकल हो जाता है | ह्रदय-वीणा एक अज्ञात आकांक्षा से गूंज उठती है | तब समझ नहीं आता कि आखिर हमें चाहिए क्या ? उसकी भौतिक दृष्टि उस प्रेम के ऐन्द्रिक स्वरूप से आगे नहीं बढ़ पाती है | उसका ह्रदय इन प्रेम-सुख से तृप्त नहीं होता, वह उन भावों को अनुभव करना चाहता है | ऐसे में मैं कह सकता हूँ कि मैंने भगवान को देखा, और नहीं भी देखा |
इतना बोलकर हरित सिंह खटिया पर से उठकर जाने लगे, तभी सोनू , फिर से पूछ बैठा ------- दादाजी ! लोग कहते हैं, परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध एक पत्ती नहीं हिल सकती , तो क्या हवा, भगवान है ?
हरित सिंह मृदु मुस्कान लिए बोले -------- बेटा ! हवा भगवान नहीं है , लेकिन हवा को बनानेवाला भगवान है , अर्थात हम, आप, सूरज, चाँद-सितारे , जमीं, सबों को ईश्वर ने बनाया है | आत्मा स्वरुप वे दिन-रात हमारे साथ रहते हैं | तभी तो हम परमात्मा को परम पिता कहते हैं |
पर सोनू इतना से कब मानने वाला था, उसने तकिये पर टेक लगाते हुए फिर पूछा -------तब तो किसी जीव के मर जाने पर हमें यह मान लेना चाहिये कि वहाँ रह रहे भगवान की भी मृत्यु हो गई | तभी रसोई में खाना बना रही, सोनू की माँ धर्म -संकट में पड़कर मोर्चा संभाली, कही------ बकवास बंद करो | अत्यधिक महत्वाकांक्षा और उन्नतशील विचार, कभी-कभी मनुष्य को दौड़ा-दौड़ाकर
परेशान कर देता है | पृथ्वी के आरम्भकाल से ही मनुष्य सोचता आया , जिस दिन भगवान का दर्शन पा लूँगा ; उसी दिन से सुखी, संतुष्ट होकर चैन से संसार के एक कोने में बैठ जाऊँगा , किन्तु यह सब मृग-मरीचिका है | भगवान अच्छे कर्मों के साथ रहते हैं , माँ की ममता के आँचल में पलते हैं ; साक्षात आँखों से नहीं दीखते |
एक दिन सोनू अपनी दादी के साथ माघी-पूर्णिमा के उत्सव पर, गंगाघाट पहुँचा, देखा ------- गंगा की धारा में छोटे-छोटे जलते हुए दीपक, लाखों की संख्या में बहे चले जा रहे हैं | यह सब देखकर सोनू की आँखें फ़ैल गईं | उसने दादी का आँचल पकड़कर कहा----- दादी, ये दीये कहाँ जा रहे हैं ?
दादी, सोनू को चूमकर कही ------ भगवान से मिलने |
सोनू, उन्मुक्त कंठ से कहा------ तो क्या इसके साथ चलने से मुझे भी भगवान से मिलने का मौक़ा मिल जायेगा ? अगर ऐसा है , तो इसके साथ हमें भी चलना चाहिये ; चलो न दादी !
दादी ------ नहीं बेटा ! इस लघुदीप को अनंत की धरा में बहा देने का मतलब है, एक दिन यह शारीर इसी तरह, दीपों की भाँति, बहता हुआ अनंता में विलीन हो जायेगा | कहते-कहते नियति भयानक वेग से चलने लगी | आँधी की तरह उसमें असंख्य प्राणी तरुण तूलिका के सामान इधर-उधर विखरने लगे | यह सब देखकर, दादी की बातें प्रत्यक्ष होने लगी | आकाश धूसर हो आया, और देखते ही देखते ताराओं को निगल गया | अन्तरिक्ष व्याकुल हो उठा, एक कडकडाहट की आवाज हुई | गंगाघाट पर के सभी यात्री, पशु-पक्षी आश्रय खोजने लगे | दादी सोनू से बोली---- बेटा ! नियति पगला गई है | अब यहाँ रहना उचित नहीं होगा | अपना गंगाजल का लोटा संभालो, और घर लौट चलो |
कुछ देर बाद जब आँधी-बरसात रुकी, सोनू ने देखा, गंगाघाट में दीये की जगह पंक, पत्ते, फूल-धूप बहे जा रहे हैं | दीपक का कहीं नामोनिशान नहीं है | सोनू ने दादी से पूछा ------ दादी ! अभी ही तो थोड़ी देर पहले, मल्लिका की माला, पारिजात के हार, अनेक प्रकार के सौरभित सुमन, गंगा के पट तल में लोट रहे थे और गंगा उसे देखकर सूर्य की रत्न-ज्योति के साथ मिलकर मुस्कुरा रही थी , मानो फूलों का उपहास उड़ा रही हो , वह सब कहाँ है ?
दादी अपनी करुणा के आवेग को नहीं रोक सकी, बोली -------- बेटा ! वे सभी गंगा की धारा संग बहते हुए, अनंता में विलीन हो गये |
सोनू, वेदना भरी दृष्टि से दादी की ओर देखकर कहा---- दादी ! ये अनंता क्या है ?
दादी हँसकर कही ---- यही तो ईश्वर है पगले, जिसका तुमने कुछ देर पहले, एक रूप देखा , तत्क्षण उसका दूसरा रूप भी देख लिया | इसलिए तुम्हारे दादा कहते हैं , मैंने ईश्वर को देखा, और नहीं भी देखा |



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