दलित विमर्श
दलित से अभिप्राय, उनलोगों से है जिन्हें , जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण सदियों से स्वस्थ एवं समुन्नत सामाजिक जीवन से वंचित, तिरस्कृत और समाज के हाशिये पर उपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश रखा गया है । इतिहास के पन्ने को पलटने से यह साफ़ पता चलता है कि , भारतीय सभ्यता के निर्माता ,वैदिक जन थे, जिनका दर्शन ब्रह्मवाद रहा, जिसके कारण, दलित वर्ग सदा संघर्षशील रहे । जरूरत की बुनियादी सुविधाओं के लिए यह समाज तरसते और तड़पते, जीता आया । इनकी व्यथा और कथा , कभी किसी ने सुनने और समझने की जरूरत महसूस नहीं की । तभी ईश्वर के वरदान स्वरूप इनके जीवन में क्रान्ति सूरज बनकर बाबा अम्बेडकर अवतरित हुए और जीवन भर गरीब , दलित, हताश तथा व्यवस्था के सताये लोगों के लिए , स्वतंत्रता की सच्ची लड़ाई लड़े । बाबा अम्बेडकर ने अंधविश्वास, विकृत, रूढ़ि-परम्पराओं, देवी-देवताओं से सम्बन्धित आडम्बरों,भाग्य,अवैग्यानिक सोच तथा उन सभी बातों को नकारा; जो मनुष्य को बर्बरता की ओर ले जाता है । लेकिन अफ़सोस, ऐसे मसीहा, जो ईश्वर के खिलाफ़ रहे, आज उन्हें भगवान बनाकर , उनके तस्वीर को फ़ूल- मालाएँ चढ़ाकर , उनके आगे लोग भजन-कीर्त्तन करते हैं । वे यह नहीं सोचते , इससे बाबा साहब की आत्मा को कितनी ठेस पहुँच रही होगी । उनकी सच्ची श्रद्धांजलि तो तब होगी जब उनके वैचारिक आंदोलन की मशाल को लेकर दलित आगे बढ़े ।
बाबा अम्बेडकर, दलित समुदाय की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक विकलता को संबल देने , दिल से ही नहीं, दिमाग से भी लड़े । उनके द्वारा उद्घोषित सामाजिक क्रांति, जितनी भौतिक और संघर्ष की थी, उतनी ही विचारों की भी थी । शिक्षा, समता, बंधुता , स्वंतंत्रता से दलितों की भावना को आंदोलित करने का श्रेय उन्हीं को जाता है । उन्हीं के प्रयास का फ़ल है, जो आज दलित धीरे-धीरे ही सही,जीवन के अंधेरे को पारकर, अब प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं । बाबा साहेब का कार्य और जीवन- संघर्ष का आलेख इतना ऊँचा है कि जिससे प्रेरणा पाकर हर कोई चेतनावान हो जाता है । उनके व्यक्तित्व में, जड़ स्थिति के विरुद्ध तनकर खड़े होने की , अदम्य जिजीविषा और ऊर्जा, अनायास ही प्राप्त होती है ।
यह विडम्वना है कि, जो वैदिक काल में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से , वर्ण व्यवस्था चली; वह आज भी जारी है । जाति- विशेष में जन्मे लोग पूजा- स्थलों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं । उनकी जाति और
परिवार का आरक्षण आज भी बना हुआ है; जिसके मिटने का आसार निकट भविष्य में तो नहीं दीखता । इन मंदिरों से मिलने वाली करोड़ों की आय पर ऐन-वैन प्रकारेण अपना दखल बनाये रखे हैं । आज भी इन मंदिरों में, वाल्मिकी परिवारों का घुसना निषेध है । सामाजिक न्याय और अधिकारों से वंचित यह दलित समुदाय देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी , हिन्दू धर्म की विभेदकारी वर्ण व्यवस्था एवं जातिवादी मक्कारियों के कारण सिर पर मैला ढ़ोने के लिये मजबूर है । बाबा अम्बेडकर के प्रयास और संघर्ष से इस व्यवस्था में कमी तो आई,लेकिन पूरी तरह आज भी समाप्त नहीं हो पाई है ।
बाबा अम्बेडकर ने अंधविश्वास , विकृत रूढ़ियों, परम्पराओं, देवी-देवताओं से सम्बन्धित आडंबरों , भाग्य सोच तथा उन सभी बातों को नकारा, कहा ऐसे सोच के दीये मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता , बल्कि उसे बर्बरता की हद तक पहुँचा देती हैं । बाबा अम्बेडकर , केवल दलितों के शुभचिन्तक थे , ऐसी बात नहीं है । उन्होंने समाज के उन सभी वर्गों के लिए जो, दबे- कुचले, दूर- दराज में, नरक जीवन बिता रहे हैं, उन सबों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए पुरजोर संघर्ष किया, बावजूद ये आदिवासी, कुछ अन्य समाज सेवी के गलत बहकावे में आकर बाबा साहब को अपना हितैषी मानने से इनकार करते हैं ।
अपने जीवनकाल में गरीबी का दंश, तिरस्कार, उपेक्षा आदि को भोगे गये यथार्थ को , अनेकों दलित लेखक- लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा में उद्घाटित किया है; जैसे भगवान दास का,’ मैं भंगी हूँ’; ’ कौशल्या वैसन्ती का,’दोहरा अभिशाप’ ; ओमप्रकाश वाल्मिकी की,’जूठन’; लक्ष्मण माने का आत्मकथा उपन्यास,’ ऊपरा’ । हिन्दी में पराया को तो साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया । प्रतिबंधों , अवरोधों, निषेधों के बीच जीने को अभ्यस्त , दलित लेखक की विद्या चाहे जिस रूप में सामने आई हो, भारतीय समाज व्यवस्था के परिवर्तन का द्योतक है और सवर्ण समाज पर जारी श्वेत –पत्र ।
आश्चर्य होता है कि जो भारतीय समाज सभी प्राणियों में एक ही परम तत्व के दर्शन , करने का दंभ भरता है , वह गुण और कर्म के आधार पर आधारित , वर्ण व्यवस्था का इतना कट्टर कैसे हो गया कि निम्न- वर्ण या जाति में जन्म लेने वालों को समाज की मुख्य धारा से जुड़ना तो दूर, अछूत मानकर छूना भी पाप समझता है । राजनीति के शीर्ष पर रहे , बाबू जगजीवन राम, जो कि दलितों के विश्वसनीय नेता थे । उन्होंने भी इन दलित वर्गों के लिये भारतीय समाज की सीढ़ीनुमा व्यवस्था को तोड़कर समतल , राह बनाने की भरपूर चेष्टा की । फ़लस्वरूप , आज विकासरूपी आकाश में ज्यादा तो नहीं, लेकिन जितने भी दलित स्वच्छंद विहार कर रहे हैं, उन्हीं के प्रयास का फ़ल है ।
कहते हैं, राख के नीचे चिनगारी ज्यादा दिनों तक दबी नहीं रह सकती ; थोड़ी सी हवा मिलते ही शोला बनकर भभक उठती है । सो समय की गति के साथ सदियों से दबे- दुबके, गूँगे दलित भी अपने अधिकारों की माँग के आंदोलन की धार को पैना करके अपना अस्तित्व बचाने के लिये खड़े हो चुके हैं । आखिर कब तक खुद को म्लेच्छ, अछूत, दस्यु, दास जैसे गालीवाचक शब्दों से बुलवाते रहते । अब इनके जीवन का उद्देश्य साफ़ है, वो है दलित मुक्ति, अर्थात इस अभिषापित जीवन का उद्धार । उसके लिए स्वयं बाबा अम्बेडकर हिन्दू वर्ण व्यवस्था का वहिष्कार करते हुए बौद्ध धर्म को अपना लिए । यही कारण है कि दलित साहित्यकारों को बौद्ध धर्म की वर्ण- विहीन व्यवस्था में अपने लिए पर्याप्त संभावनाएँ दीखती हैं । मलयालम और तमिल समाज में तो दलितों का आंदोलन , काफ़ी हद तक हिन्दू विरोध, ब्राह्मण -- और संस्कृत विरोध पर आधारित प्रतीत होता है । ब्राह्मण-
अब्राह्मण के कट्टर भेदभाव से ग्रस्त इस दलित समाज के चिंतक कंचा इल्लय्या तो यहाँ तक घोषणा करते हैं कि एक दिन , भारत की राष्ट्रभाषा
अंग्रेजी बन जायगी और तब हिन्दू धर्म का नाश हो जायगा । ऐसी सोच चिंताजनक है , भविष्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा ।
ऐसे तो दलित साहित्य की शुरूआत संत परम्परा
के कवियों द्वारा सदियों पहले हो चुकी थी । बाद में आधुनिक काल में प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, नागार्जुन आदि लेखकों ने इस परम्परा को और समृद्ध किया । लेकिन दलित, अम्बेडकर की ही विचारधाराओं की सराहना करते हैं, उन्हें मूल मानते हैं ; बाबा की बातें, १९२० से ’मूकनायक’ पत्र के माध्यम से लोगों तक पहुँचने लगी थीं । उन्होंने पत्रिका के माध्यम से कहा, भारत में सामाजिक गड़बड़ी का जड़ वर्ण व्यवस्था है, जो कि सहज समाप्त होगा ; ऐसा तो नहीं लगता । और जब तक यह समाप्त नहीं होगा,न तो जाति विवाद खत्म होगा, न ही छूआछूत । यहीं से संगठित होकर, दलित आन्दोलन की शुरूआत हुई और यही आन्दोलन बाद में जनसंघर्ष का रूप लिया और इन्हीं जनसंघर्षों से दलित साहित्य या दलित विमर्श की परम्परा विकसित हुई ।
कुछ बुद्धिजीवियों का तो यहाँ तक मानना है कि भारत की लम्बी गुलामी का एक बड़ा कारण भारतीय समाज की रुढ़िग्रस्त,सड़ी-गली जाति –व्यवस्था भी है । हमारे स्वतंत्रता पुरोधाओं ने तो इस कलंक को मिटाने , भारत के संविधान में यह प्रावधान भी रखा ; इस व्यवस्था में ,भारत में किसी भी नागरिक के साथ वर्णभेद करना अपराध माना जायगा तथा हरिजन और गिरिजन जाति को अनुसूचित जाति के रूप में सूचिबद्ध किया गया । इसके परिणाम आज भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य की नई प्रवृति के विकास के रूप में आने लगे हैं । लेकिन अगर दलित साहित्य का उद्देश्य , जाति –उन्मूलन करना है तो साहित्य, सामाजिक टकराव का नहीं, बल्कि दलित विमर्श पर होना चाहिये ; तभी साहित्य और समाज ,दोनों का कल्याण होगा ।
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