’देशभक्त मदन मोहन मालवी’य’
---डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई
गुलामी की बेड़ी में जकड़ी,विवश लाचार
भारत माँ की सुनकर,दुखार्त चित्कार
मौन नीलिमा में हलचल हो उठी
चारो दिशाओं में मच गया हाहाकार
तभी चिर साध्वी प्रकृति ने ,उद्घोष किया
अभी- अभी मानव आत्मा को ज्योतित करने
अरुण के सांध्य किरण में
मनुज रूप आकार ग्रहण कर,तीर्थराज प्रयाग में
माता मूना देवी के घर एक पद्म खिला
जिसके साँस गंध से, सुगंधित हो उठी धरा
सूखे तरु मुस्कुरा उठे, पल्लव में लाली फ़ूटी
तृण - तृण प्रेम प्रणति में हो गया हरा
सुनकर आसमां का डूबता सूरज
गिरि गह्वर में जाकर ठहर गया
पवन शिल- संधियों से टकरा-
टकराकर करने लगा गुंजार
सूखी सरिता उछल-उछलकर तटिनी को
सुनाने लगी उसकी गरिमा गान
जिसे सुनकर मूर्च्छित कलियाँ खिल उठीं
करों में कुसुमांजलि लेकर दौड़ पड़े प्राण
शशि –तारे सभी जाग , पूछने लगे
घेरे जिसे दिशाएँ चल रहीं,जिसके लिये
धरती की छाती से उमर आया क्षीर
क्या है उसका नाम, कौन है वह वीर
निश्चय ही वह शांति दूत होगा कोई
जो अपने निर्दिष्ट पथ के अमर
बेलि पर फ़ूलों सा है आज खिला है
कल यही फ़ूल , जिसका नाम पिता
पंडित ब्रजनाथ व्यासजी ने
मदन मोहन मालवीय रखा है
अपनी चिता का ज्वाल जलाकर विश्व के
इस घोर तिमिर में उजाला फ़ैलायेगा
आज माँ के अंक में है मुस्कुरा रहा
देवों के शुभ - आशीर्वाद से
धीरे - धीरे बालक बड़ा हुआ
और एक दिन प्रतिष्ठापुर से निकलकर
बाहर, भारत के कानन में आ गया
वहाँ जाकर देखा,दम्भियों के भय से
पवन चलता नहीं, कलियाँ बीमार हैं
ऐसे में जलदों से लदा गगन होगा
की कल्पना करना बेकार है
तृष्णा की पंकिल में धँसकर खो न जायें हम
उन्होंने कहा ,पापी आदमी नहीं, उसका कर्म है होता
इसलिए हम उसके प्रति अपना चित्त क्यों मलिन करें
भारत में, निधि मनुष्यता की, आज भी अपार है
जरूरत नहीं तलवार की,हम उसका व्यवहार करना सीखें
उन्होंने संकल्प लिया,स्वयं को विश्व देवता
कहने वाले फ़िरंगियों का,भारत की भूमि पर
कभी माल्य – अभिषेक नहीं होने दूँगा
अभी भी समय है,वे संभल जायें
वरना , चढ़ते पानी से
खिलवाड़ करना अच्छा नहीं होगा
मत सोच हम अभी नींद से जागे हैं
यह हमारी पहली अँगड़ाई है
तुमसे पहले भी, यहाँ कई अन्यायी
आये और चले गये,अबकी तेरी बारी है
याद रखो , उँची मनुष्यता का
पथ , बड़ा कँटीला होता है
जो इस पर चलने से नहीं डरता
वही प्रभंजनों पर भी शासन करता है
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