Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा

 

धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा


विनत मुकुल  – सा हृदय वालाभू –  नर

अपने मनोनभ को दीपित करनेआज

वस्तु भोग के पीछे  इतना  पागल  हो गया

धूल -  धुँध में अग्नि बीज बोरहा

ज्यों मृत्यु विचरती  धरा  पर  निर्भय होकर

त्यों प्रलयकारी शस्त्रों से सुसज्जित होकर घूम रहा


कहता,मैं  मानव प्रतिनिधि,भावी भारत का निर्माता

मैं निजअपूर्व चेतना की शिखा से आलोकित कर

धरा मानव का स्वर्गिकरूपांतर  करना चाहता

इसके लिए मुझे असिधारा के पथ पर चलना होगा

तोड़मरोड़कर शोभा के  पल्लव की  डाली को

प्रतीक्षा में जो खड़ा हैनव मानव धरा पर उतरने 

उसके  लिए समतल  पथ  प्रशस्त करना होगा


इसके  लिए मनुजदेह  के  मांसल रज से 

धरती की मिट्टी का नव निर्माण करना होगा

जब तक उर्वरक मस्तिष्क का चेतन – वैभव 

धराधूलि संग मिलकर एकाकार नहीं होगा

तब तक सर्वोज्वल चेतना संभव नहीं,प्राणों के 

निकट रहकर भी अधरों का राग म्लान रहेगा



वृत में घूम रहा,   मानवकी 

समतल  व्यापी  दृष्टि होने के कारण

मनोजग  से बाहरऊपर देख नहीं पाता

मुक्ति कहाँ विचरती,चिंतन कर नहीं पाता

हृदय  क्रंदन जाकर  डूबता कहाँ, जीवित 

जग में  इतनी  उत्पीड़न आती  कहाँ से

चिर उल्लास  से  दर्शन  कहाँ  होगा

सोच , जीवन  को बता नहीं पाता


ऐसे भी  अस्थिपंजर  का  यह जग घर

यहाँ  जीवन क्षण -धूलि ठहरतीनहीं पल भर

देवों का अतुल ऐश्वर्य शोभा-सुंदरता

ज्योतिप्रीतिआनंद अलौकिक,स्वर्ग लोक का

जो वाहित होकर  रहा निरंतर धरा की ओर

जिसके त्रस्त जाल में घिरतातिरता मानव के 

भावोद्वेलित  वक्ष को तृण कक्ष  के द्वार पर

खड़ा  कर अशांत  जीने  को बाध्य करता


इसलिए मैं खोद-  खोदकर देख रहा  हूँ

कहाँ  दबीहै वह  आग ,जो  चिमनी से उठे 

फ़िर से आग और जीवन कंदर्प को कर दे खाक

ऐसे भी  निखिल  धराकीशोषण पीड़ा

से  पोषितमनुज अंगों की मांसल शोभा पर

आधिव्याधि,गीध से टूटते बहु रोग, जो तन से

तो  बाँधे रहता मन को, प्राण से नाता देता तोड़


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