धन्ना सेठ
पौष का महीना था , शिवटहल के झोपड़े के बाहर अलाव जल रहा था | पास-पड़ोस के कई लोग वहाँ बैठे, अपने दुःख-सुख की बातें बतिया रहे थे | भीतर झोपड़े में शिवटहल, दिन भर का थका-मांदा रात -ठंढ से बचने के लिए, एक ढिबरी की रोशनी में बैठकर अपना कम्बल सिल रहे थे | तभी पत्नी शीला, रोटी बनाने के लिए आटा गूंधती हुई आवाज ऊँची में बोली---- क्या जी , धन्ना के बाबू ! कम्बल सिला हो गया ? मुझे ढिबरी चाहिए |
शिवटहल, विद्रोह भरे मन से बोले------ क्यों, क्या बात है ? एक जगह सिलना हो तब तो, यहाँ तो कहाँ-कहाँ सिलूँ, यही समझ में नहीं आ रहा है |
शीला, रक्तभरी दृष्टि से देखकर कही------ रोटी बनानी है , और क्या, अपनी चिता तो सुलगानी है नहीं, नहीं तो कुप्पी की क्या जरूरत, वो तो अंधेरे में ही जलती |
पत्नी की बात सुनकर , शिवटहल का चेहरा लाल हो गया, बोला-----कितनी बार तुमसे कहा, एक और ढिबरी का इंतजाम कर लो , लेकिन तुम हो कि -------------- |
शीला, शिवटहल की बात सुनकर क्रोधित हो उठी, और उत्तेजित कंठ से बोली---- एक ढिबरी का तेल तो जुरा नहीं पाते , आये हैं दूसरी की बात करने !
पत्नी की बात सुनकर, शिवटहल अभिमान भरी हँसी के साथ कहा ------क्यों नहीं जुटता, अब भी तुमको अभाव दीखता है, जब कि बेटा तुम्हारा, धन्ना सेठ ?
पति की बात सुनकर , शीला तैश में आ गई, और रोती हुई, आहत अभिमान से पूछी ------ मैं धन्ना सेठ की माँ हूँ, तो तुम पिता हो ; फिर क्यों अपने फटे-चिटे कम्बल को सिलते हुए कल्पित हो रहे हो | फेंक दो इसे और ले आओ नया |
शिवटहल एक अच्छे निशानेबाज की तरह, मन को साधकर बोले ----- शीला ! कोई पिता अपने ही गरीब बेटे को धन्ना सेठ कहे , सोचो वह खुद को कितना मजबूर पाया होगा | मगर क्या करूँ ? तुम कान धरकर धन्ना की बात सुनो | अलाव ताप रहे लोगों से वह खुद को किस तरह धन्ना सेठ की गिनती में खडा कर रहा है ? कह रहा है ----‘मैं जब भी घर बनवाऊँगा, वह इतना स्वच्छ और
फिसलन भरा होगा , जिस पर मखियाँ भी बैठे , तो फिसल जायें | मानो वह, हवेली छोड़कर सब कुछ हासिल कर चुका है, अब किसी चीज की उसे जरूरत नहीं | यहाँ तक कि महादेव भी आकर पूछे------ माँगो, तुमको क्या चाहिए , तो वह मुँह फेर लेगा, और कहेगा -------- महादेव किसी और के पास जाइये, मुझे कुछ नहीं चाहिए |
शीला डबडबाई आँखों से शिवटहल की और देखी, बोली------वह दिवास्वप्न देखने लगा है | उसकी हालत उस पथिक की तरह है, जो घर का रास्ता भूल गया हो | उसका ह्रदय यह सब कल्पना आनन्द से नहीं, बल्कि एक अव्यक्त भय से काँप रहा है , तभी महीने के तिस दिन और दिन के चौब्बिस घंटे, यही स्वप्न देखने में धन्ना का कटता है |
उसे समझाते क्यों नही, बताते क्यों नहीं कि आँखें बंद कर लेने से अंधेरा भाग नहीं जाता , ज्यों का त्यों बना रहता है | इसलिए आँखें खोलकर रहो !
शिवटहल, चिंता व्यक्त करते हुए बोले ------ शीला ! सच तो यह है कि जब भी मैंने उसे समझाने की कोशिश की है, वह अपनी वाक्य-पटुता से मुझे निरुत्तर कर देता है | कहता है-----बाबू ! तुम्हीं बताओ , संसार में कौन प्राणी है जो, स्वार्थ के लिए अपनी आत्मा का हनन नहीं करता है | जब संसार की यही प्रथा है , तो मैं कौन होता हूँ , इसका तिरस्कार करनेवाला ? कम से कम ऐसा कर , मैं तो ईश्वर के आचरण को कलंकित नहीं करूँगा |
शिवटहल की बातों को सुनकर शीला, वहीँ भूमि पर बैठ गई, और रोती हुई बोली----- तो इस निठल्ले का अत्याचार हमें इसलिये सहना होगा, कि हमने उसे जन्म दिया है ; पाला है, बड़ा किया है ?
शिवटहल ने कठोर शब्दों में कहा----- नहीं शीला, ‘कोई जरूरत नहीं’ माता-पिता से अपना स्नेह बंधन, वह कब का तोड़ चुका है |
शीला को पति की बातें तथ्यहीन मालूम पड़ीं , उसे शिवटहल की बातों से इतना आघात पहुंचा, मानो ह्रदय में छेद हो गया हो | उसने रोते हुए ,आहत कंठ से कहा ----- शिवटहल ! क्रोध को दुर्वचनों से विशेष रूचि होती है | इसलिए अपने क्रोध को त्याग दो | आखिकार, वह हमारी अपनी सन्तान है, उसे समझाओ, उससे कहो | आदमी का महत्वाकांक्षी होना जायज है, जुर्म नहीं, मगर तुम अपने पुरुषार्थ से, अपनी मेहनत से, अपने सदुपयोग से उन्हें पूरा कर सको, तो क्या कहना ? लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को पतित करके, अपनी आकांक्षा को रंगीन
करना, पाप है | हो सकता है, परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान धन्ना को , उसकी कर्तव्यहीनता से अवगत करा सके |
पत्नी की सलाह पर, एक दिन शिवटहल, धन्ना को अपने पास बुलाये, और अपनी
छाती से लगाकर पीड़ित स्वर में बोले ---- बेटा ! यह जीवन सपाट समतल मैदान नहीं है, इसमें कहीं-कहीं गढ़े-खड्डे भी हैं | इस गढे को जो खुद के हुनर से पार कर गया, वह विजयी है | जो दूसरों के कंधे पर चढ़कर पार किया, वह ख़ाक विजयी कहलायेगा | मगर इसके लिए कड़ी मेहनत , और निष्ठा की जरुरत पड़ती है, जो कि तुममें है, बस जरुरत है ,कोशिश करने की, न कि आनन्द कल्पनाओं में फिसलकर डूब मरने के भय से ,तुमने इन्हें अपने मन में आश्रय नहीं दिया और अपने चंचल मन को खाली इधर-उधर भटकने छोड़ दिया | जिसके कारण ऊँची- ऊँची मगर काल्पनिक उड़ान भरने लगा , जिसमें बैठकर तुम वास्तविक संसार से, कल्पना के संसार में पहुँच गए हो | यहाँ पहुँचकर तुम्हारी दशा उस बालक सी हो गई है, जो नस्तर की क्षणिक पीड़ा न सहकर उसके फूटने, नासूर पड़ने, कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भूल गया हो |
बेटा ! मेरा मानना है कि दुनियावाले धन को जितना महत्त्व दे रखे हैं, उतना महत्त्व उसमें है नहीं | दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है | इसलिए सम्मानीय होने के लिए, खुद में कर्मठता और वह योग्यता लाओ कि लोग भय से नहीं, दिल से तुम्हारा सम्मान करें |
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