धरा सुख में क्या रखा है
---- डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई
मैंने कब चाहा था, चंदन सुरभि सी
लिपटी प्राणों की पीड़ा को समेटे तुम
निस्सीमता की मूकता में खो जाओ
और मैं यहाँ, अवनि सम देह तपाऊँ
रज कण में सो रही, पीड़ाओं के ज्वाल-
कणों को जगाकर,व्यथित उर हार बनाऊँ
मैंने तो बस इतना चाहा था,जीवन निशीथ के
अंधकार में,प्राणों की झंझा से आंदोलित अंतर
प्रलय सिंधु सा जो गर्जन कर रहा
उस पर मेघमाला बन बरस जाओ
छूटे न लय प्राण का जीवन से,जीवन-
जलतरंग संग ताल मिलाकर चला करो
धरा सुख में रखा ही क्या है
त्राहि -त्राहि त्रस्त जीवन है
प्राणों की मृदुल ऊर्मियों में
अकथ अपार सुखों का घर है
जो अंक लगते ही आँखों से
पलकों पर ढल आता है, उसे
समझो,उसका न अपमान करो
ज्यों लिपट-लिपटकर डाली से,पत्ते प्यार जताते
सिमट - सिमटकर पक्षी वृक्षों में खो जाते
त्यों , अमर वेली सा फ़ैले धमनी के बंधन में
प्राण ही न रहे अकेला,तुम भी आकर बस जाओ
यह भार जनम का बड़ा कठिन है होता
जिस मंजिल का शाम यहाँ, रुकेगा इसका
प्रभात कहाँ, कुछ समझ नहीं आता
तुम्हारा यह भ्रम है ,मन की प्यास का चरम है
प्रीति-सूत्र में बंधकर नव युग उत्सव मनाने
हम फ़िर से धरा पर जनम लेकर आयेंगे
छिपा प्रलय में सृजन,घोर तम में रहता है प्रकाश
हम उषा के जावकों में और संध्या के
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