दीपक
रूमा को अपना टूटा—फूटा झोपड़ा , अपने मैले-कुचैले कपड़े , कर्ज-दाम की चिंता, अपनी दरिद्रता , अपने दुर्भाग्य, ये सभी पैने काँटे, दीपक के होते कभी फूल थे | अगर कोई कामना थी, तो यह कि मेरे लाल के साथ कभी कुछ बुरा न हो | वह दिन भर की थकी-हारी मेहनत-मजदूरी कर जब घर लौटती थी, तब अपनी गोद में अपने लाल दीपक को पाकर, इतना संतुष्ट होती थी , कि मानो तीनों लोक का सुख, उसके कदमों के नीचे हो |
आज सारी बातें, एक-एक कर रूमा को बारी-बारी से आकर रुला रही थीं | उसका बदन मलिन था; ज्यों जलपूर्ण पात्र ज़रा सा हिलाने से छलक जाता है, त्यों जीवन-संध्या के घनघोर अंधकार की कल्पना कर, रूमा के नयन-कक्ष से आँसू, बूँदें बन-बनकर बहे जा रहे थे |
यह सब देखकर चमनलाल, रूमा के पास गए और आद्र कंठ से पूछे---- प्रिये ! क्या आज तुमने फिर दीपक को स्वप्न में देखा ? वह क्या कर रहा था ?
रूमा सिसकती हुई बोली --- हाँ चमन ! मैंने देखा , वह मेरे पड़ोस की रीमा के गले से चिपटा सो रहा है | मैं दौड़कर उसके पास गई , और डरते-डरते रीमा की गोद से उठाकर, अपनी गोद में लेने लगी | सहसा दीपक की नींद टूट गई, और एक बार फिर से वह मेरी नजर से भागकर कहीं दूर ओझल हो गया | यह देखकर मुझे ऐसा लगा, कि अपना दीपक किसी बात पर हमसे नाराज है , अन्यथा कोई बालक अपनी माँ की गोद को भी ठुकराता है ? चमनलाल कांपते स्वर में बोला------ यह तुम्हारा वहम है | अरि, वह तो, तुमको दूर से ही देखकर तुम्हारी गोद में आने के लिए हुमकने लगता था | उसे माता-पिता के सिवा दुनिया की कोई और वस्तु प्रिय नहीं थी | वह तो हमलोगों का प्राण था, कहते-कहते चमनलाल का कंठ रुंध गया, वे चुप हो गए |
रूमा, अपने पति की इस मनोव्यथा को सह न सकी | वह सजल नयन होकर बोली---- जब दीपक था तब पुत्र-स्नेह ने तुम्हारी तो काया ही पलट दी थी | तुम कितने कंजूस हो गए थे ? दो रोटी की जगह एक रोटी, सब्जी की जगह नमक-पियाज से काम चला लिया करते थे |
पत्नी की बात सुनकर , चमनलाल के मुख पर एक क्षण के लिए आत्म-गौरव की
आभा झलक गई , मगर तत्क्षण शोक नदी में डूब गए | उनकी गंभीरता जाती
रही, और बिलख-बिलख कर रोने लगे |
रूमा, चमनलाल की फ़िक्र को कम करने के लिए मोह-शोक और वियोग-व्यथा के आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए, अपने पैने शब्दों से चमनलाल के ह्रदय के चारो ओर खाई खोद देना चाहती थी | जिससे कि उसके पति मूक-रोदन मुक्त हो सके, उसने कहा---- मैं सब समझती हूँ चमन, अब हमलोग सत्तर पार कर चुके हैं | जानते हो ------शीतल, धीर, गंभीर बुढापा, जब विह्वल हो जाता है , तो मानो पिजड़े के द्वार खुल जाते हैं , और तब पक्षियों को उड़ भागने से रोकना असंभव होता है |
चमन आर्त्तस्वर में आकाश की तरफ देखा , मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला--- बेटा ! थोड़े समय बाद हमारी नजरों के आगे घोर अँधेरा होगा | हाथ को हाथ नहीं दीखेगा | पाँव तो होंगे , मगर हिलेंगे नहीं , तब हमारी ऊँगली थामकर अँधेरे से निकालकर हमें उजाले की ओर कौन ले जायगा ? हम भटक-भटककर अंधेरे में कहीं गुम हो जायेंगे | दोपहरिया तक तो सब ठीक था बेटा, दिन ढलेगा उसके पहले ही अकस्मात आकाश मेघाछान्न हो गया, और अनर्थकारी दुर्देव ने, तुझे हमसे छीनकर अपने साथ उड़ा ले गया | यह कहते-कहते चमनलाल धरती पर लेटकर, विलख-विलखकर रोने लगे |
रूमा, पति के आँसू को अपने आँचल से पोंछती हुई भिक्षुणी की तरह घिघियाती हुई कही --- चमन ! आज हमारी स्थिति उस गरीब सी है , जिसके झोपड़े में आग लगी हो , और उसको बुझाने में खुद को असमर्थ पाकर घर के बचे बाकी भागों में आग लगा दिया हो |
चमनलाल, लेटे-लेटे सिसकते हुए कहा --- हाँ रूमा ! रोग जब असाध्य हो जाए, तब रोगी के लिए पथ्या-पथ्य की बेड़ियाँ तोड़कर मृत्यु की ओर भागना ही ठीक रहता है | पति के मुख से नैराश्यमय बातों को सुनकर रूमा काँप गई , और निराशा की उस हालत में पहुँच गई , जब आदमी को सत्य और धर्म में भी संदेह होने लगता है |
रूमा, पुत्र-स्नेह से भावुक होकर बोली--- जानते हो चमन, दीपक के जाने के बाद, धन-धर्म , ऐश्वर्य-मर्यादा , बल-विद्या, ये सभी मौत के सामान से लगते हैं | इनमें कोई आकर्षण नहीं बची, अब तो बुझी हुई आशाएँ, खोई हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए ह्रदय के आँसू , इन्हीं विभूतियों के स्नेह के सहारे हम जीते हैं | कितना
बल है इनमें, बोलो ? कहते-कहते सहसा रूमा की आँखों के आगे बिजली कौंध गई,उसने देखा ----एक आकृति जाड़े की रात के समान ठंढे स्वर में पूछ रही है कि--- माँ ! अभी तक तुम सोई क्यों नहीं ?
रूमा अपनी आँखों के आँसू आँचल के खूंट से पोंछती हुई बोली--- बेटा ! बुढापे का भय और उद्वेग , मेरे मन पर इतना बोझ डाले रखती है, कि मैं सो नहीं पाती हूँ | आँखें बंद करते ही प्रकृति की निर्जनता , मेरे बूढ़े और कमजोर ह्रदय से टकराने लगती है, तब मैं कराह उठती हूँ | जब तू मेरे साथ था, तब ऐसा नहीं था | तब तो यही तक़दीर मुझे हवा के घोड़े पर बिठाकर रिद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में ले जाती थी | आज वह प्राण-पोषक हवा, वह विस्तृत नभमंडल और सुखद कामनायें सभी लुप्त हो गए | नित कल्पित सुख को भोगनेवाला मेरा ह्रदय, अब रात-रात रोता रहता है | रूमा की बातों के अंतिम भाग को सुनकर, आकृति दुखी होकर सोचने लगी ---- आज मेरी बूढी माँ, मेरे आगे रो रही है , और मैं उसे गले से लगा तक नहीं सकती | मैं एक अपराधी की तरह अपने दोनों हाथ बाँधे खड़ा हूँ | मेरा होना, इनकी पीड़ा को बढाना है | इसलिए मुझे यहाँ से चला जाना चाहिए , और आकृति धीरे-धीरे रूमा से दूर चली जाने लगी | यह देखकर रूमा चीख उठी, और काँपते स्वर में बोली --- मुझे अकेला छोड़कर मत जावो बेटा ! मेरे जीवन के इस बूढी रात के अन्धकार का तू ही तो दीपक है | हम तुम्हारे आसरे ही तो जी रहे हैं | सोते-जागते तुम्हारी ही चिंता हमदोनों किया करते हैं | इससे चित्त को संतोष और अभिमान मिलता था | आकृति जब पूरी तरह रूमा की आँखों से ओझल हो गई, तब वह दौड़ती हुई चमनलाल के पास गई, बोली----- चमन तुम पिता हो, तुम्हारे रोकने से वह रूक जायगा | तुम जाकर दीपक को रोको; मेरे रोके नहीं रूक रहा |
चिंता की सजीव मूर्ति , रूमा के चेहरे पर की उदासी को देखकर चमनलाल समझ गए , रूमा अभी तक सुसुप्तावस्था में है | उसने रूमा के मुख पर ठंढे पानी का छींटा मारकर कहा---- रूमा , होश में आओ | दीपक अब लौटकर हमारे पास कभी नहीं आयेगा | उसके और हमारे बीच की दूरी आसमान -जमीं की है | हमें अब उसके बगैर जीवन-मरुभूमि की इस तपती धूप में अकेले चलते रहना होगा |
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