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Dr. Srimati Tara Singh
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डोल रहा जीवन प्रशांत

 


डोल रहा जीवन प्रशांत----डॉ. श्रीमती तारा सिंह


जड़ता सी शांत व्योम की

अनंत नीलिमा में

किस देदीप्यमान मुख को

ढूँढ़ रहा मेरा प्राण

जला रहा साँसों की बाती

कह रहा धूप, दीप

अक्षत, चंदन , नैवेद्य सब

मैं ही हूँ ,मुझी को मान

दे दे,अपने चरणों में स्थान

जगत में बह रही केतकी हवा

डगमग डोल रहा जीवन प्रशांत

तृण की तरी खेवी नहीं जा रही

कहाँ ले जाऊँ,किस घाट लगाऊँ

कुछ तो कहो कृपानिधान


वरना छीन कर हृदय की वंशी

तेरे चरणों में कर दूँगी अर्पित

मर्जी है तेरी, तू मान या न मान

रूप,रंग,रस सब पीछे छोड़ आई हूँ

अकड़न-जकड़न सब त्याग आई हूँ

अब तो मेरी उँगली थाम




अबतक तुझको देव समझकर

तुझसे दूर खड़ी रही मैं

मगर तू तो मेरा पिता था

फ़िर क्यों रहा तू मुझसे अनजान

न कभी रोका, न कभी टोका ,न ही

कभी बताया,प्रकृति लता के यौवन में

जीवन का होता नहीं कोई स्थान


ऐसे तो शब्द में रहकर भी

शब्द न पार पाया तुझसे कभी

मैं तेरी महिमा गाऊँ,होती कौन

तू है अखिल विश्व में, या

यह अखिल विश्व है तुझमें

तू न बताये, तो बताये कौन

पर यह तो सच है,आवर्तन और

परिवर्तन का नायक तू ही है

तू ही है इस जग का नीति-निधान

तू जो न चाहे तो सूरज रोशनी को

छोड़दे, शीतलता को छोड़ दे चाँद


सुनती हूँ तू पागल प्रेमी

साधक बनकर , केवल दीन - दुखियों

की पीड़ा ही नहीं हरता , तूने तो

गणिका-अज़ामिल का भी किया है कल्याण

फ़िर कमल- हृदय में कीड़ा क्यों,तू ही जान



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