दोस्ती और दायरा
चाँदनी रात का सबेरा था| देवव्रत की आँखें खुलीं, तो देखा---- चन्द्रमा में फीका प्रकाश अब भी बाकी है| मगर शीतल पवन की चादर उसे ढंक लेना चाहती है| एकाएक उसकी नजर दीवाल पर टँगी घड़ी पर पड़ी, दिन के आठ बज चुके हैं, देखकर चौंक उठा, तभी किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिए, वह सिहर उठा, कंपित स्वर में पूछा---- कौन?
कर्कश कंठ से आवाज आई---- तुम्हारा पिता, रामवरण|
देवव्रत, पिता की आवाज सुनकर घबडा गया, बोला--- वो रात ठीक से नींद नहीं आई, इसलिए जागने में देरी हो गई| माफ़ कीजिये, पिताजी! मैं अभी खेत पर जाता हूँ|
रामवरण, चिलम के कई कश खींचकर कहा---- इतनी भी जल्दी नहीं है बेटा, थोड़ा नाश्ता कर लो, लौटने में देर हो सकती है|
देवव्रत शीघ्रता से नहा-धोकर, पूजा-पाठ से निवृत हो, पत्नी सुमित्रा को आवाज देकर कहा---- सुमित्रा कुछ खाने का है तो, दे दो; नहीं तो नमक-सत्तू बाँध दो, खेत पर पहुँचकर ही खाऊँगा| ऐसे भी काफी देर हो चुकी है, और अधिक देरी करने से आज भी, पानी की बारी पर नहीं पहुँच सकूँगा|
तभी उसके कानों में अपने दोस्त भानुप्रताप की जानी-पहचानी आवाज गई, वह बाहर दरवाजे पर कह रहा था---- क्या, रामकिशन! तुम रोज यहाँ दूध देने आते हो?
रामकिशन---- जी, बाबूजी, पहले मेरे पिताजी आते थे| उनके गुजरने के बाद, अब मैं आता हूँ|
भानुप्रताप---- देवव्रत जी के कितने बाल-बच्चे हैं?
रामकिशन---- तीन|
भानुप्रताप---- इसका मतलब हुआ, वे लोग कुल पाँच जने हैं?
रामकिशन---- जी, बाबूजी|
भानुप्रताप, अपने पाकेट से एक नोट निकालकर, अपनी आँखों से लगाकर पूछा---- दूध कितना देते हो?
रामकिशन---- दो लीटर|
सुनकर चौंकते हुए भानुप्रताप बड़ी ही आत्मीयता के साथ बोले---- इसका मतलब, यहाँ एक अनार सौ बीमार वाली हालत है, तभी सुमित्रा भाभी (देवव्रत की पत्नी), चालीस में सत्तर की दीखती है| चेहरे पर झुर्रियाँ, मकड़े की जाल सी पड़ गई हैं, आँखें धंस गई हैं; सुंदर गेहुँआ रंग, सांवला हो गया है| बोलकर भानुप्रताप कुछ देर चुप रहे, फिर भयातुर लहजे में बोले---- जानते हो, सुमित्रा जब शादी कर यहाँ आई थी, किसी देवकथा की पात्री सी दीखती थी| रंग बिल्कुल कंचन की तरह, गठन साँचे में ढला हुआ| पता नहीं इन दश वर्षों में ही, वह कहाँ आ गई? उसकी तरफ देखो तो दया आती है; आँखों से आँसू निकल आते हैं|
देवव्रत, भानुप्रताप के व्याख्यानों को कुछ देर सुनते रहे| इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, उसकी बड़ी-बड़ी मूछें खड़ी कर दीं| वे तिलमिला उठे, और प्रचंड होकर बोले---- भानुप्रताप, अगर तुम्हारी जुबान काबू में नहीं है, तो कटवा क्यों नहीं लेते? तुम्हारे मुँह से एक औरत का इतना अपमान, अपना जीवन सार्थक करने के लिए, स्त्री का होना जरूरी है? तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?
भानुप्रताप, बिना किसी संकोच के कहा---- इसलिए कि, मैं समझता हूँ, मुक्त-भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता| विवाह तो आत्मा और जीवन को पिंजड़े में कैद कर देता है|
देवव्रत ने भानुप्रताप की ओर विषभरी नजरों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रहे हों---- भानुप्रताप, तुम्हारी दलील, तुमको मुबारक हो| तुम जैसे आदमी को अगर मनुष्य ने रचा है, तो निश्चय ही वह अन्यायी रहा होगा, और अगर ईश्वर ने रचा है, तो उसे क्या कहूँ, सिवा इतना कि---- प्रभु! भानुप्रताप को गढ़कर तुमने बहुत बड़ी गलती की| उसकी शिष्टता उद्दंडता भरी है अन्यथा उसे क्या मतलब है कि किस युवती का रंग, कितने दिनों में गोरा से काला हुआ, और काला से गहरा काला हुआ; वह तो दूसरों के बहू-बेटियों को, अपने मनभवन में कैद कर उसकी बेइज्जती करना ही अपना धर्म समझता है|
भानुप्रताप दांत किटकिटाकर कहा---- देवव्रत! तुम मुझसे किस जनम का बैर चुकता कर रहे हो| अरे! ऐसा मैंने क्या कह दिया, जो तुम सर पर आसमान उठा रखे हो| इतना ही तो कहा कि देवव्रत अपनी पत्नी को अपने जीवन में शर्करा -क्षीर की भाँति मिला लिया है| उसे पत्नी को छोड़कर दुनिया की कोई भी दूसरी वस्तु प्यारी नहीं है| इसके सिवा और कुछ बोला हो तो, रामकिशन से पूछ लो| हाँ, दोष तो तब देता अगर मैं कहा होता ‘भाभी जैसी गुण की मूर्ति’, के शरीर का प्राण देवव्रत जैसे दुष्कृत मनुष्य के साथ अपना जीवन कैसे व्यतीत करता है, तब तुम्हारे गुस्सा का मैं कारण बन सकता था| मेरा क्या धर्म है, और उसके निर्वाह की रीति क्या है, तुमसे अच्छा जानता हूँ| दुःख होता है देवव्रत, कि जिस मित्र के लिए कभी तुम अपना अस्तित्व धूल में मिला देने के लिए तत्पर रहते थे, आज उस दोस्त के बाल-व्यवहार को भी तुम क्षमा नहीं कर सके, क्या तुम्हारा ह्रदय इतना संकीर्ण हो चुका है?
देवव्रत तीक्ष्ण स्वर में कहा---- जिस आदमी में ह्त्या करने की ताकत हो, उसमें ह्त्या न करने की ताकत का न होना अचम्भे की बात है|
भानुप्रताप ने आवेश में आकर कहा---- यदि तुम्हें पाप की खेती करनी है, तो शौक से करो! इसमें मेरा क्या जाता है?
भानुप्रताप फिर धृष्टता से कहा---- दौड़नेवाला खड़ा नहीं हो सकता है, तो मैं क्या करूँ?
देवव्रत, व्यथित कंठ से कहा---- तुमको कुछ करने की जरूरत नहीं है| अब जो करूँगा,
मैं ही करूँगा| हमारे बीच एक दोस्ती का धर्म था, जिसे तो तुम निभा न सके, आये हो निर्वाह, रीति का ज्ञान बघारने!
भानुप्रताप क्रोध में ऐंठकर कहा---- मुझसे ऐसी उट-पटांग बातें मत किया करो, समझ गए| तुम्हें ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म नहीं आती| एक बार पहले भी तुमने कुछ ऐसी ही बातें कही थीं| मेरा तुम्हारे घर आना पसंद नहीं है, तो साफ़-साफ़ बोल दो| तुम्हारे घर सोना-चाँदी तो गड़ा है नहीं, जिसे मैं उखाड़ने चला आता हूँ| अरे! मैं तो तुम्हारे घर आकर अपनी चिंताओं को भूल जाता हूँ| तुम्हारे दर्शन मात्र से ही, मुझे आश्वासन, दृढ़ता और मनोबल प्राप्त होता है| मैं उसी मित्र का जड़ खोदूँगा! कितना घोर विश्वासघात होगा, याद रखना देवव्रत, विश्वास मैत्री का मुख्य-अंग है| मैं मैत्री की निर्मल कीर्ति पर धब्बा नहीं लगाऊँगा; मैत्री पर वज्रपात नहीं करूँगा| जो मित्र मेरे लिए गर्दन कटाने तैयार खड़ा रहता है, उसी मित्र को संसार के सामने अपमानित करूँगा| भगवान मुझे वह दिन न दिखाना|
मैंने तो अपना कर्त्तव्य समझकर भाभी के बारे में पूछा, यद्यपि मैं जानता हूँ कि यह मानवीय दुर्बलता की पराकाष्ठा है| मेरे विचार और व्यवहार में भेद कभी न था, न रहेगा| मैं क्यूँ चाहूँगा हैं कि तुम्हारा शांति-कुटीर उजड़ जाए, तुम्हारा परिवार किसी मुरझाये फूल की पंखुड़ियों की भाँति बिखर जाए| इतना कहकर भानुप्रताप, कभी लौटकर न आने की कसम खाये और, घर की और चल दिये| देवव्रत खड़ा-खड़ा क्रीड़ामय नेत्र से अपने दोस्त को जाते देखते रहे|
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