डूब गई जो चाँदनी, कभी यहीं लहराया करती थी
मत देखो ! तुम इस टूटे प्रासाद को, इतनी घृणित निगाहों से
यह तुम्हारे ही अतीत की अस्मित गौरव का खँडहर है
जब भी तुम्हारा संकल्प,स्वर्ण भूषित परिधान पहना करता था
मृणमय वसुधा, सुधायुक्त दीखती थी, तुमको तुम्हारी आँखों से
डूब गई जो चाँदनी , कभी यहीं लहराया करती थी
उगा करता था दिनमान जहाँ, वह हमारी ही थाती थी
हम दोनों झाँका करते थे, उस सुख को इसी वातायन से
याद करो उन दिनों को, हमारे जीवन नभ पर कैसे - कैसे
दुख के बादल जब – तब आकर छुप जाया करते थे
और अग्नि प्रज्ज्वलित कर, हमारे भविष्य की छाया को
तम से घिरा, वीभत्य, विकृत, आकृतिहीन दिखलाया करते थे
जीवन नदिया हाहाकार कर उठती थी तब, पीड़ा की तरंगों से
जब देखती थी क्षितिज भाल पर कुमकुम मिटता,कालिमा के करों से
मैं विकल बावली सी फिरती थी झंझा के उत्पातों से
फिर भी मैं कभी हार नहीं मानी थी, कयोंकि सुदूर पथ से
आ रहे सुनहले दिनों की आहट, मुझे साफ सुनाई पड़ती थी
जिसके स्वागत में,मैं अपना पग संभाल-संभालकर रखती थी
पर तुम्हारे उस सुनहले स्वप्नों का संसार बन न सकी मैं
लेकिन तुम्हारे जीवन व्योम का विस्तार आज भी हूँ मैं
तुम्हारे जीवन के कितने ही दिनमान डूबे हैं मेरी इन बाँहों में
कितने ही तरंगाकुल हृदय- समुद्र लहराए हैं मेरी इन आँखों में
कुछ समझ पाती मैं, उसके पहले ही कर्पूर गंध- सी
मेरे जीवन की मादकता उड़ गई हवाओं में
उसी आत्म- दंशन की व्यथा का, पाश्चाताप हूँ मैं
लुट गए जिस नगर के सिद्धि और श्रृंगार, दोनों ही
उस नगर का , मनुज तन में एक अवतार हूँ मैं
तुम्हारे स्तब्ध हृदय को चीरकर, आ रही है जो क्षीण आवाज
उस हृदय द्रावक , करुण वैधव्य का चीत्कार हूँ मैं
तुमने कभी सोचा कहाँ , कि अपराह्न में संध्या कयों उतर आई
दिन आलोक क्यों मलिन हुआ, विभा किस छाया में जा छुपी
तुमने परछाई पड़ रही अनागत- आगत के स्वागत में
निज हृदय के सुरेन्द्र -नाद में, मेरा चीत्कार कहाँ सुना
जब तक सुधि लौटकर आई तुम्हारी, तब तक सपना टूट चुका था
खो चुका था जीवन का हर वैभव, डूब चुका था वह चाँद मेरा
किसी अनजान गगनांगन में, जो कभी मेरे लिए अंजलि भर जल में
दूर्वा का दल बनकर उगा करता था, तुम्हारे उसी तप की
आग और त्याग का संधान हूँ मैं, गूँज रही है जो तुम्हारे
हृदय में भावों की भीड़, उस सुख का अश्रुनीर हूँ मैं
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