दुख अतिथि का चरण धो - धोकर पीती रहो
ऐसा कोई राह बतला दो, जिसे मैंने
अपने अश्रु - जल से न धोया हो
पीड़ा में जनम ली हूँ, करुणा में मिला है वास
बिना यतन पाई हूँ मैं, मेरा यह सौभग्य
विधाता ने भी दिया है मुझको यही वरदान
तिल - तिलकर मिटती रहो, घटती रहो बनकर
अमावस का चाँद , मिटते रहने से होता जीवन निर्माण
कहते हैं , उस निराकार की करुणा है बड़ी निराली
जिसका चरण पकड़कर , सिंधु हुई सीमाहीन , गहरी
उसी ने कहा है मुझको , निज हृदय का क्षोभ भुला दो
उर की तप्त व्यथाओं को त्यागो,क्षीण उर की
करुण कथाएँ मत कहो किसी से
दुख अतिथि का चरण धो - धोकर पीती रहो
सहती रहो, भोगती रहो, साम्राज्य उत्पीड़न का
तुम -सा सरोज मुख का, मैं हूँ प्रेमी अनंत
शीघ्र ही लेने आऊँगा तुमको, बनकर हेमंत
मैं नित कहती हूँ उस करुणानिधि से
इस उत्ताल तरंगाघात प्रलय घन गर्जन
जलधि प्रबल में, कब तक बचाए रखोगे इस
जर्जर तरणी को, जिसके अंग - अंग से अब
उटने लगा है घर्र - घर्र का नाद
विरहाकुल कंठ से निकलने लगा है,विहाग अपने आप
तुम्हीं तो इस मर्त्त लोक के रंगमंच का कर्णधार
कौन जाने कल फिर तुम , किस - किस को सहारा दोगे
किसके मस्तक शोभोगे, किस अतीत का बनकर सम्राट
उत्सुकता से घबराकर खोलती हूँ, जब हृदय का दृढ द्वार
तब सोचती हूँ, उसे लौटाकर मुझे कैसे दोगे तुम
जो आँसू बनकर ढलक गया, मेरे उर का उद् गार
तुमने तो वृत्तहीन तारों का फूल खिलाकर
सजा दिया अम्बरवासियों का घर - आँगन
काल वायु में स्खलित न हो जाए यह कनक प्रसून
कर न सके ,उसके कमल मुख पर व्याकुलता का संचार
इसके लिए मरोड़ते हो कभी गला शिला का,कभी
चूमकर तम - कण को, घन बनाते, भरते ताल - ताल
जब तुम जग जीवंतामृत तरुण , तमाल तलाश्रित को
पीयूष पूर्ण पानी का प्याला भर - भरकर पिलाते हो
तब फिर मुझमें और औरों में भेद क्यों रखते हो
क्या मैं तुम्हारी सृष्टि की नहीं हूँ, या फिर मेरे जीवन
का रचनाकर है और कोई, जो यौवन की पहली
मंजिल में ही मेरा सब कुछ छीन लिया, दुख की उफनती
धारा में पतवार बिना मेरी जीवन नौका को छोड़ दिया
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