फूल बने अँगारे
पति के स्वर्ग सिधारने के बाद रमाबाई, जैसे-तैसे खुद को सँभाल ली, यह सोचकर कि यह ईश्वरीय विधान की एक लीला है | माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर खेल है | प्रणय का वह बंधन, जो सत्तर साल पहले पड़ा था ; टूट तो चुका था, पर उसकी निशानी, पुत्र शम्भू के रूप में उसके सामने था | उसकी आँखें कुछ ढूंढती थीं, न पाकर रोती थीं | कभी-कभी पति की वह प्रेम-विह्वल स्मृति, जिसे देखकर वह गदगद हो जाती , दिल में छाये हुए अँधेरे में क्षीण, मलिन , निरानंद ज्योत्सना की भाँति प्रवेश करती, तब वह विलाप करने बैठ जाती | उसके लिए, भविष्य मृदु स्मृतियाँ नहीं बची थीं , कुछ बचा था , तो वह कठोर, निरस वर्त्तमान का विकराल रूप |
शरीर साथ नहीं देता, फिर भी , मुँह अँधेरे सारे घर में झाड़ू लगाती, बरतन माँजती , आटा गूँथती, तब बहू का कार्य केवल रोटियाँ सेंकना और सास को सर्पिणी की भाँति दिन भर फुफकारना रहता था | एक दिन रमाबाई को अपनी पशुता, अपनी वास्तविक रूप में दिखाई दी , तत्क्षण उसने तय कर लिया , कि गृहस्थी की गाड़ी, अब और मुझसे खींचना संभव नहीं है, उसने घर का सारा काम करना बंद कर दिया | बहू यह सब देखकर आग-बबूला हो उठी | वह तड़पती हुई पति व्यास के पास गई, और अपना बयान देना शुरू कर दी | पहला ही वाक्य सुनकर व्यास सिहर उठे, और दूसरा वाक्य सुनकर उसके मुख पर का रंग ही उड़ गया |
सीमा, कठोर लहजे में बोली---- आपके कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए क्या मैं अकेली हूँ , और कोई नहीं ?
व्यास, सीमा की बातों से हैरत होकर बोला --- मैं अपने कुल की रक्षा स्वयं कर सकता हूँ, इसके लिए तुम्हारी मदद नहीं चाहिए | मगर बात क्या है, खुलकर बताओ |
सीमा, आँसू भरी आँखों में तेज भरकर कही ------- तो फिर अपनी माँ को समझाओ ? उनसे कहो , इतने दिनों तक, तो वो इस घर की स्वामिनी बनी रही , अब तो बस करे ! ऐसे भी , इस उम्र में अब, उनके लोक-परलोक की भलाई भी तो इसी में है, कि शेष जीवन भावत भजन में काटे, तीर्थयात्रा करें, साधु-संतों के बीच रहें | संभव है, उनके उपदेश से इनका चित्त शांत हो जाय, और माया-मोह से मुक्ति पा जाएँ | ऐसे भी घर में रहकर दिन भर मन मारे बैठी रहती है; पहले तो थोड़ा -बहुत घर का काम भी कर लिया करती थी, जिससे उनका जी बहल जाता था | अब तो सब छोड़ दी |
इस प्रकार दो महीने बीत गये ; पूस का महीना आया | रमाबाई के पास जाड़े का कोई कपड़ा नहीं था | पूस का कडकडाता जाड़ा, लिहाफ या कम्बल के बगैर कैसे कटता ? रात भर गठरी बनी रहती , जब बहुत सर्दी लगती, तो बिछावन ओढ़ लेती | सो बेटे से जाकर बोली--- बेटा ! मुझे कुछ गरम कपडे खरीद दो | बहुत ठंढ पड़ रही है, अब और बर्दास्त नहीं कर पा रही हूँ | दिन ढलते ही रात के कष्ट की कल्पना कर भयभीत हो जाती हूँ |
रमाबाई के घर में दो कोठरियां थीं, और एक बरामदा | एक कोठरी ,बेटे-बहू ने हथिया लिया था, और दूसरे कोठरी में खाना बनता था | सोने-बैठने का कोई विशेष स्थान नहीं था | रात को जब सभी लोग खा-पीकर सोने चले जाते थे, तब वह दादी का शयनगृह बन जाता था | दादी रात भर वहीँ पड़ी रहती थी, बिना किसी गरम कपडे के , बाबजूद बहू को, दादी का घर में होना खलता था | उसने मन ही मन तय कर रखा था, कि जैसे भी हो बुढ़िया को निकाल बाहर करना है | उसने व्यास से भी कह रखा था---- देखो जी ! तुम्हारी माँ के कारण, मैं जब कभी तुम्हारा घर और तुमको छोड़कर चली जाऊँगी | बहुत हो गया, जब देखो, बक-बक करती रहती है |
व्यास दिखाबे के लिए नम्र , इतना सेवातत्पर, इतना घनिष्ठ था, कि वह स्पष्ट रूप से माँ के किसी काम में कोई आपत्ति नहीं जता पाता था | पर हाँ, दूसरों पर रखकर श्लेष रूप से माँ को सुना-सुनाकर गुबार निकालता था | रमाबाई , बेटे की उद्दंडता पर न ही रोती थी, और न ही क्षुब्ध होती थी | पर यह जानने के लिए, उसकी आत्मा तड़पती रहती थी ; वह व्यास की तरफ कातर नेत्रों से देखती हुई पूछी, कि बेटा , यह किस गलती की सजा है ? क्या तुमको जन्म दिया, अपने भगीरथ परिश्रम से पाला---बड़ा किया , इस काबिल बनाया कि दुनिया में सर उठाकर जी सको , क्या यही गलती है मेरी , इसे ही मैं अपनी गलती मान लूँ | बहू तो, सामने और परोक्ष , रूप से मेरा नाको दम किये रखती है ,और तुम हो कि सीधा मुँह बात तक नहीं करते | मैं बीमार हूँ , मुझे किसी चीज की जरूरत है,और नहीं, पूछते तक नहीं | क्यों बेटा , कल और आज में इतना फर्क ?
जब तक तुम्हारे पिता ज़िंदा रहे, घर का कठिन काम वे खुद कर लिया करते थे ; मुझे कभी नहीं करने दिया | अभ्यास नहीं रहने के कारण, घर के काम-काज से रात को कुछ ज्वर रहने लगा | धीरे-धीरे यह गति हुई कि जब देखो ज्वर विद्यमान है; न खाने की इच्छा होती है, न पीने की | फिर भी दो रोज पहले तक सदैव काम करती रही; और ज्वर होते ही, चादर ओढ़कर लेट जाती थी | दिन भर घर के कोने में पड़ी कराहती रहती थी | दुर्बलता के कारण जब मूर्च्छा आती है, तब हाथ-पाँव अकड़ जाते हैं | तुम आफिस आते-जाते, मुझे मन मारे देखते हो, पर शिष्टाचार के नाते भी कभी पूछते तक नहीं , कि तुम्हें क्या हुआ है, जो इतनी दुबली हो रही हो ?
अपने पिता के होते तुम ऐसे नहीं थे ; तब भी तुम अपनी पत्नी से इतना ही प्रेम करते थे | मगर कभी पत्नी के पक्ष में खड़े होकर, पिता की उपेक्षा नहीं किये थे | आधी रात को भी जब वे आवाज लगाते थे, तुम अपने दोनों हाथ बांधे, सामने आकर खड़े हो जाते थे | तब तुम्हारे पिता बड़े ही गर्व से कहते थे------देखो व्यास की माँ ! मैंने अपने बेटे को कैसा संस्कार दिया है , इसे कहते हैं, खानदानी संस्कार | काश कि वे अपने दिए संस्कार को देख पाते कि किस तरह वह संस्कारी बेटा, अपनी कठोरता और निर्दयता से पिता की भविष्य- आकांक्षाओं को धूल में मिला रहा है |
माँ की एक-एक बात व्यास के दिल पर चिनगारी की तरह फफोले डाल रही थी | उसने जलती हुई आँखों से, माँ की और देखकर कहा--- माँ, तुम तो एक वकील की पत्नी हो ? कानून की बहुत सी बातें जानती होगी | तो यह भी जानती होगी कि अगर पिताजी, अपनी सारी संपत्ति तुमको देना चाहते, तो कोई वसीयत जरूर लिख जाते | यद्यपि कानून की नजर में वसीयत कोई चीज नहीं होती, पर हम उसका सम्मान करते | उनके वसीयत का न होना, बताता है की उनकी संपत्ति का मालिक मैं और सिर्फ मैं हूँ | इसलिए मेरी पत्नी से यह कहना , कि यह घर , यह जायदाद मेरा है, इसलिए कि इसे मेरे पति ने अपनी कड़ी मेहनत से बनाया है , बंद करो |
दिन भर, रमाबाई फ़िक्र में डूबी मौन बैठी सोचती रही, कितनी बड़ी भूल थी | पति के जीवनकाल में जो बालक मेरा चेहरा ताकते रहता था, आज वो मेरे नसीब का विधाता बन गया है | यह सोचकर मैंने यह जायदाद नहीं खरीदी थी, कि एक दिन इससे बेदखल भी होना होगा | मैंने तो इसे जीविका का आधार समझा था | इस जायदाद को खरीदने और संवारने में मुझे वही सुख मिलता था, जो सुख एक माँ अपने संतान को फलते-फूलते देखकर पाती है | अगर यह पता होता, कि एक दिन इस पर मेरा कोई हक़ नहीं रहेगा, मैं रुपये लुटा देती , दान कर देती , पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर नहीं गाडती | अनाथिनी तो पति के अंतिम साँस के साथ ही मैं हो गई थी | मात्र भ्रमवश अपने को स्वामिनी समझ रही थी | अच्छा हुआ, आज तुमने उस भ्रम का सहारा भी छीन लिया |
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