Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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फिर भी तुमसे मिलने की प्रतीक्षा

 

फिर भी तुमसे मिलने की प्रतीक्षा



 वादा,  न भरोसा,  न कोई संदेशा

फिर भी मनुष्य जीवन पर्यंत,मंदिर की

दीप शिखा  सी,  शांत भावलीन होकर 

करता, तुमसे मिलने की प्रतीक्षा


क्योंकि यहाँ चित्रकारों ने बना रखा है

तुम्हारे स्वर्ग  का  चित्र  अनोखा, कहता 

वहाँ सुबह हो या शामदिन हो या रात 

हर  पल  तारे टिमटिमाते  बेसुध होकर 

दौड़ती हृदय शिरा में शोणित की धारा 

जो नहीं दे पातीमर्त्यलोक की शीतलता 


यहाँ जवानी के जोश में मनुज,जगत को

मुट्ठी में लेकर देश-परदेश घूमता-फिरता

दर  दर  की ठोकरें खाता, जिंदगी एक 

और  आरजुएँहजार  लिए जीता, इसलिए    

जग  में गौरव  का  दाह  प्रज्वलित रहता


वहाँ जख्म भरने के लिए 

फाहे की तरह, सुबह गीला होता

जो छत से होकर  घास पर ढलता

वक्त के टाट पर रेशम की तरह बिछता



यहाँ नित दावँ पर द्रौपदी लगती

अंधे धृतराष्ट्रों के दरवारों में नंगी होती

और काशी  के घाट  पर विधवाएँ रोतीं

गांधारी की आँखों पर पट्टी बंधी रहती


वहाँ उर - उर में नूपुर की ध्वनि सी

मादकता का तरल तरंग बिछता

हरित पत्तों से फूटकर स्वर का

सप्तक रंग छाता, प्रणय समीरण

जगती तम के खुले नयन  संग 

नभ के एक छोर से दूसरे छोर  तक 

उड़ा ले जाता, सुख की  लहरों को

छल - छलकर बहते दिखलाता


अतीत के उस सागर संगम को बहते दिखलाता

जिसकी बूँदों के लघु - लघु कणों में छुपकर

गति स्वच्छंद अजित अभीत रहती

जो कुलकुल-कलकल,  कलकल कर बहता रहती

जिसे देखकर  मनुज हृदय आत्मा नाच उठती


यहाँ निशीथ की नग्न वेदना

औरदिन की दुरभ्य दुराशा

मनुज मन  की कोमल शाखाओं पर 

नव अभिलाषा की कोमल पल्लवों को

पलने नहीं देतीं, चिंता - बाधाएँ आकर 

नित अपने निष्ठुर कर से मरोड़ जातीं



वहाँ देव शासित , अलक सुगंध, मदिर - सरि

शीतल जल  भुज ग्रीवा का  उत्साह बढाता

खुशियाँ  पवन  में  छिपकर  कलियों का मुख 

चूम , छिद्र पात्रों से ग्रीवा निकालकर भोर गाता

यहाँ  देव रूप को ग्रहण  किए  दानव  निरंतर 

अपने  कर - कुंज को बढ़ाकर सुख कलियों को

नोच  नोच छत - विछत कर रुलाता और

उस अश्रुजल से धरा के अंचल को सिक्त करता


काल बंधनसे बंधा यह जीवन

रंगशाला का नायक बनकर जीना चाहता

आँखों के अलियों सा मधु की

गलियों  में फंसारहता, पदरज भर भी

विश्व का भार कम नहीं होने देता


मगर जब अस्ताचल में ढ़लते,रवि,शशि को

विभावरी में चित्रित होते देखता तब 

मुँद रही  अलकों से नयन नीर ढल जाता

सोचता जीवन का यही है अमर  विराम

जहाँ आकर काल भी ठहर जाता, यहीं होता

तम सुप्तिका शांति भोर,  यहीं उठता 

अविराम अंतहीन हिलोर

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