घर से श्मशान तक
गोधूलि थी | दद्दू ज्वाला प्रसाद अपनी पोती, रेनू को शादी उपरांत ससुराल बिदाकर, थका ,उदास, अपने दरवाजे पर बैठे थे | रह-रहकर उनकी आँखों से आँसू की धारा निकल आ रही थी, जिसे अपने अंगोछे से पोछने की असफल कोशिश कर रहे थे | आज से पहले, उन्होंने अपने जीवन की आशालता को कभी नहीं मुरझने दिया था | उनका सुंदर, सुगठित शरीर बिना देख-रेख के ही झील जल के पानी की तरह, स्थिर मगर चमकता हुआ रहता था | उनकी ममता चित्कारमय ध्वनि से गरज रही थी | तभी ज्वाला प्रसाद के बचपन के दोस्त, श्रीधर उधर से गुजर रहे थे ; ज्वाला प्रसाद को गुमशुम, उदास बैठा देख श्रीधर पास आये , पूछे ---- दोस्त ! आज ये तपस्वी सा तुम क्यों बैठे हो ? शाम का समय है , यह भी कोई वख्त है, घर के भीतर रहने का ? चलो, उठो , बाहर निकलकर देखो ----- चाँदी की थाल लिए रजनी, धरा पर किस कदर धीरे-धीरे उतर रही है, मानो कोई नई नवेली दुलहन पालकी से पाँव बाहर रख रही हो |
ज्वाला प्रसाद प्रकृतिस्थ होकर बोले --- आज रेनू भी इसी कदर अपना पाँव, पालकी से धीरे-धीरे धरती पर धरी होगी, तब उसके घर वाले, उसकी सुंदरता पर कह उठे होंगे ---क्या परी है , चाँदनी भी मात खा रही है |
श्रीधर -----इतनी ख़ुशी का दिन है, और तुम मातम मना रहे हो , क्यों ?
ज्वाला प्रसाद ने काँपते हुए लहजे में कहा --- हाँ मित्र ! सचमुच आज का दिन, मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन दिन है | मैं आज की स्मृति को अपने दिल में रखकर जिंदगी भर पूजता रहूँगा, मगर ?
श्रीधर, ज्वाला प्रसाद का हौसला बढ़ाते हुए पूछे --- मगर क्या ?
ज्वाला----- मैंने रेनू को जिस सूरत में ससुराल जाते हुए देखा है , वह मेरे दिल को भाले की भाँति छेद रहा है | मुझे अपनी जिंदगी में कभी इतना दुःख नहीं हुआ, जितना आज हो रहा है |
श्रीधर, चिंतित होकर पूछे --- ऐसा क्या तुमने ?
ज्वाला प्रसाद, मुंह से हल्की सी साँस निकालकर बोले ----- श्रीधर, वहाँ कोई आदमी ऐसा नहीं है, जिससे रेनू अपने मन की बात बता सके, उद्वेग के जंगल में वह अकेले भटक रही होगी | उसके पथ में कभी निराशा की अंधकारमय घाटियाँ, तो कभी आशा की लहराती हुई हरियाली होगी | उसके लिए प्यार, उपासना की वस्तु बनकर रह जायेगी | इस हाल में, मैं न तो उसके डूबने का दुःख ,न ही तैरने की ख़ुशी मना सकता ; तुम्हीं कहो, इस दशा में, मैं क्या करूँ ?
श्रीधर अनुरक्त होकर बोले----- तुम भी दोस्त गजब के हो ! अगर तुमसे किसी ने बताया है, कि रेनू के ससुरालवालों में मनुष्यता कम, पशुता ज्यादा है , तब भी तुम रेनू को लेकर चिंतित होना छोड़ दो | ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ, देखा गया है कि , जहाँ एक दफा प्रेम का वास हो गया , वहाँ उदासीनता और विराग चाहे पैदा हो जाये, मगर हिंसा का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता |
ज्वाला प्रसाद, श्रीधर का हाथ थामकर द्रवित कंठ से बोले ----मित्र ! अपने गाँव के अनिरुद्ध को जानते हो ?
श्रीधर करुण भाव से बोले---- हाँ, अच्छी तरह , उनकी मझली बेटी, श्वेता की शादी, रेनू के ससुराल गाँव में ही हुई है | बड़ी
भोली है , बच्ची !
ज्वाला प्रसाद, अपने पोते के हाथों से अपनी मूँछ की रक्षा करते हुए, पूछे --- कब से तुम उन्हें जानते हो ?
श्रीधर, ठंढी साँसें लेकर बताये ---- एक दिन मैं खेत पर जा रहा था | ठीक मेरे आगे-आगे एक चूड़ी- वाला चला जा रहा था | तभी पीछे से आवाज आई---चाचाजी ! उस चूड़ीवाले को हमारे घर भेज दीजिये न , मैं कब से बुला रही हूँ, वह सुनता ही नहीं है | तब मैंने चूड़ीवाले से कहा--- तुम उस मकान में जाओ | एक बिटिया , तुम्हें बुला रही है ; तब से उसे जानता हूँ |
ज्वाला प्रसाद, चिंतित भाव से कहे ---- उसी ने रेनू के परिवार वालों के बारे में बताया, कि रेनू के पूरे परिवार, अपनी संपत्ति की दीवार ऊँची करने में माहिर हैं | रेनू के श्वसुर, दहेज़ के लिए अपनी बड़ी बहू के क़त्ल के इलजाम में पांच साल की जेल भोगकर आये हैं | देवर अर्थात् रेनू के पति विजय का छोटा भाई, भीमा अभी बेल पर है ; जानते हो , उसने अपने फूफा को जहर देकर मार डाला | मगर गनीमत है, कि उस पर अभी तक आरोप सिद्ध नहीं हुआ | फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा, कि उसके परिवार के जीवन का अवलंब तलवार है | कदाचित इसका हमें ज्ञान नहीं था ; फिर व्यथित होकर बोले ----मर्यादा की दीवार बहुत ऊँची होती है दोस्त, जिसे फाँदना रेनू के लिए मुश्किल होगा | तभी तो मैंने तुमसे कहा, रेनू के ससुराल और श्मशान में सिर्फ एक कदम का फासला है |
श्रीधर झुंझलाकर बोले----- ज्वाला , गलती तो तुम्हारी है, जो तुमने शादी से पहले, लड़के तथा उसके परिवार की पूरी जानकारी , क्यों नहीं लिये ?
ज्वाला प्रसाद, आँसू पोछते हुए कहे ---- पता किया था , बताने वाले ने तो रेनू के श्वसुर को, धर्मपरायण का पुतला बतलाते हुए कहा था ---- उनका ह्रदय ओस बिन्दुओं से धुले हुए फूलों के सदृश निर्मल है | दीनों की सेवा में उनका चित्त जितना उल्लसित होता है , उतना संचित धन की बढती हुई संख्याओं से नहीं होती | मैंने सोचा, ऐसे आदमी की छत्र-छाया में बहू बनकर रेनू सुखी नहीं रहेगी , तब कहाँ रहेगी ; कहते-कहते ज्वाला प्रसाद की आँखें भर आईं |
ज्वाला प्रसाद की सरलता और नम्रता, श्रीधर के ह्रदय को लगा कि ऐसे शुद्धात्मा और निस्पृह मनुष्य का श्रद्धापात्र बनकर रामानुज ने जो क्षुद्रता की है, यह एक जघन्य पाप है, और ऐसे पापी आदमी को उदार से उदार भी अपनी नज़रों से गिरा देगा | इतना निर्दय और विवेकहीन कि अपने स्वार्थ के लिए, एक मासूम के जीवन का क़त्ल कर दिया |
रेनू को ससुराल रहते छ: महीने बीत गए | इस बीच कोई बुरी खबर नहीं थी | सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक एक शाम ज्वाला प्रसाद को एक शोक संवाद मिला कि रेनू बीमार है | ज्वाला प्रसाद, बदहवास रेनू के घर दौड़े | वहाँ पहुँचकर देखा--- रेनू मलिन विस्तर पर लेटी, कराह रही है | वह विषम पीड़ा से विकल है | डा० बुलाने कहने पर, घरवालों ने यह कहकर मना कर दिया ,कि घबड़ाइये नहीं समधी जी, रेनू जल्द ठीक हो जायगी | कल उल्टा-सीधा कुछ खाई होगी , जिसके कारण पेट दर्द कर रहा है, सिवा और कोई कष्ट नहीं है | ये बातें सुनकर ज्वाला प्रसाद को तस्कीन हो गई | उन्होंने हाथ जोड़कर रेनू के पति विजय को बड़े विनीत भाव से कहा ---बेटा ! इसे प्यार देना , यह मेरे कलेजे का टुकड़ा है | इसके बगैर हम जिंदे नहीं रह सकेंगे | इस पर विजय, अपनी भाषा में सुन्दरता लाते हुए कहा--- दादाजी ! रेनू आपके कलेजे का टुकड़ा है , तो मेरा वह प्राण है | उसका ख्याल मैं जो न करूँ, तो मुझसे ज्यादा कृतघ्न प्राणी इस संसार में दूसरा नहीं होगा | दो-तीन दिन बाद ही रेनू इतनी स्वस्थ हो गई कि वह तकिये के सहारे बैठने लगी | यह देखकर, ज्वाला प्रसाद आशा से भरपूर विश्वास के साथ घर लौट आये |
एक दिन संध्या समय ज्वाला प्रसाद, श्रीधर के साथ बरामदे में बैठकर इधर-उधर की बातें कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा---- एक दिव्य और विमल आत्मा, उनके आगे हाथ जोड़े खडा है | ज्वाला-प्रसाद बड़े ही नम्र भाव से चकित होकर पूछे ---- तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? तुमको क्या चाहिए ?
वह दिव्य आत्मा, दोनों हाथों अपनी आँखों के आँसू पोछते हुए , कल्पित स्वर में कहा ---- मालिक ! मैं आपकी पोती के ससुराल का नौकर हूँ | मैं यह बताने आया हूँ ,कि छोटी बहू कल खाना बनाते समय बुरी तरह झुलस गई | उनको अस्पताल ले जाया गया , मगर --- - - - - - - |
ज्वाला प्रसाद आदेशपूर्ण नेत्रों से पूछे---- मगर क्या , तुम यही बताना चाह रहे हो न ,कि उनको बचाया नहीं जा सका | वो चलीं गईं |
नौकर, पत्थर की मूरत बनकर, चुपचाप खडा,सुनता रहा |
बूढा ज्वाला प्रसाद, नौकर की तरफ सदोष नेत्रों से देखकर कहा----- अब तुम जाओ और उन्मत्त की भाँति दौड़ते हुए श्रीधर के गले से लिपट गए, बोले--- मित्र ! मैंने कहा था न , रेनू के ससुराल से श्मशान कुछ ही कदम पर है |
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